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परमार अभिलेख
(११७६-७८ ई.) ने अल्पायु में गद्दी संभाली। राज्य के शत्रुओं के लिये यह सुनहरा अवसर था ऐसे समय परमार भी चूकने वाले न थे ।
विध्यवर्मन् (११७५-९४ ई.) ने मालव राज्य से चौलुक्यों को ११९० ई. से पूर्व निकाल बाहर किया। उस के राजकवि सुल्हण ने इसी वर्ष वृत्तरत्नाकर पर वार्तिका पूर्ण की। उसमें विध्यवर्मन् को अवन्तिनृपति, धाराधिनाथ, मालवक्षितीश एवं शक्तिशाली चौलुक्य नरेश को पराजित करने वाला निरूपित किया है ( प्रो. इं. हि. कां., १९६०, सुल्हण एण्ड विंध्यवर्मन् -- प्रो. वालेंकर) । देवपालदेव के संवत् १२८२ के मांधाता अभिलेख ( क्र. ६५ ) से विध्यवर्मन् द्वारा धारा नगरी की मुक्ति प्रमाणित है। जैन आचार्य आशाधर के मालव क्षेत्र में शरण लेने के समय विंध्यवर्मन् वहां का नरेश था ( धर्मामृत, पृष्ठ १ ) । श्लोक क्र. १५ में सुभटवर्मन् ( ११९४१२०९ ई.) द्वारा गुजरात अभियान का उल्लेख है । इस नरेश का स्वतंत्र अभिलेख अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है । परन्तु देवपालदेव व जयवर्मदेव द्वितीय के मान्धाता अभिलेखों ( क्र. ६५ व ७२ ) से इसकी पुष्टि होती है । साहित्यिक साक्षों से भी इसकी पुष्टि होती है ।
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श्लोक १७ में अर्जुनवर्मन् ( १२१०-१२१६ ई.) द्वारा गुजरात नरेश जयसिंह पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख है । १३१० ई. से पूर्व गुजरात में आंतरिक संघर्ष उभर आया । जयसिंह ने भीम द्वितीय से राज्य छीन लिया। परन्तु सभी प्रांतपतियों ने उसकी सत्ता स्वीकार नहीं की । ऐसे समय अर्जुनवर्मन् ने गुजरात पर आक्रमण किया । पर्व गिरि की उपत्यका में जयसिंह से उसकी मुठभेड़ हुई। जयसिंह हार गया व उसकी सेना प्लायन कर गई। बाद में जयसिंह ने अपनी पुत्री विजयश्री का विवाह अर्जुनवर्मन् से कर दिया । इस विजय का उल्लेख देवपालदेव व जयवर्मन् द्वितीय के मांधाता अभिलेखों ( क्रं. ६५ व ७२ ) में प्राप्त होता है। धार से प्राप्त पारिजातमंजरी नाटिका भी इसी विजय को को लेकर रची गई ।
भौगोलिक स्थानों में मण्डप दुर्ग आधुनिक मांडू है जो धार से २२ मील दूर एक विख्यात पर्यटक स्थल है । शकपुर प्रतिजागरणक की समता गांगूली ने शाजापुर जिले में शुजालपुर परगने से की। परन्तु अन्य सुझाव सल्कनपुर ग्राम से इसका तादात्म्य करने का है जो मांडू से ९ मील उत्तर की ओर स्थित है । पिडिविडिग्राम की समता गांगुली ने पिपलियानगर से की है । परन्तु अन्य सुझाव सल्कनपुर से उत्तर पश्चिम में ४ मील की दूरी पर पालिया ग्राम से करने की है । मुक्तावसु की समता वर्तमान में सरल नहीं है ।
(मूलपाठ)
ओं नमः पुरुषार्थचूडामणये धर्माय ॥
प्रतिबिंबतया भूमेः कृत्वा साक्षात्प्रतिग्रहं । जगदाल्हादयन् दिश्याद्द, विजेंद्रो मङ्गलानि वः ||१|| जीयात्परशुरामोसौ क्षत्रः क्षुण्या (ण्णा) रणाहतैः । संध्या बिबमेयोर्वी दातुर्य्यस्यैति ताम्रतां ॥२॥ येन मंदोददीबाष्पवारिभिः शमितो मृधे । प्राणेश्वरी - वियोगाग्निः स रामः श्रेयसेऽस्तु वः ।। ३ । भीमेनापि धृतौ मूर्द्धनि यत्पादौ स युधिष्ठिरः । वंशाद्ये ( शोये ) तेंदुना जीयात्स्वतुल्य इव निर्मितः ॥ ४ ॥ परमारकुलोत्तंसः कंसजिन्महिमा नृपः । श्रीभोजदेव इत्यासीदासीमक्रांतभूतलः ।। ५ ।। यद्यशश्चंद्रिकोदेति दिगुत्संगतरंगिते । द्विषन्नृपयशः पुंजपुंडरीकैर्निमिलितं ।। ६ ।। ततोभूदुदयादित्यो नित्योत्साहक कौतुकी । असाधारण वीरश्रीरश्रीहेतुविरोधिनां ॥ ७ ॥ महाकलहुकलपांते यस्योद्दामभिराशुगैः । कति नोन्मूलितास्तुंगा भूभृतः कंटकोल्वणाः ||८|| तस्माद् छिन्नद्विषन्मर्मा नरवर्मा नराधिपः । धर्माभ्युद्धरणे धीमानभूत्सीमा महीभुजां ।। ९ ।। प्रतिप्रभातं विप्रेभ्यो दतैग्रमपदैः स्वयं । अनेकपदतां निन्ये धर्मो येनैकपादपि ॥१०॥
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