Book Title: Parmaras Abhilekh
Author(s): Amarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 292
________________ सीहोर अभिलेख २४३ होता है) जल हाथ में ले कर दान दिया। विदित हो कि श्री भृगुकच्छ में वास करते हुए हमारे द्वारा बारह सौ सत्तर संवत्सर की वैशाख वदि अमावस्या को सूर्यग्रहण के पर्व पर स्नान कर, भगवान भवानीपति की पूजा कर, संसार की असारता देख कर तथा२०. इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाली जल बिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है । यह सभी विचार कर, अदृष्टफल को स्वीकार कर, मुक्तावस्थु स्थान से आये वाजसनेय शाखा के अध्यायी, काश्यप गोत्री, काश्यप वत्सार नैध्रुव इन तीन प्रवरों वाले, अवसथिक देल्ह के प्रपौत्र, पण्डित सोमदेव के पौत्र, पण्डित जैनसिंह के पुत्र, पुरोहित गोविन्द शर्मा ब्राह्मण के लिये सारा ही ग्राम चारों निर्धारित सीमा सहित, साथ में वृक्षों की पंक्तियों के समूह से व्याप्त, हिरण्य भाग भोग उपरिकर, सभी आय समेत, साथ में निधि व गड़ा धन, माता पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिये, चन्द्र सूर्य समुद्र पृथ्वी के रहते तक, परमभक्ति के साथ शासन द्वारा जल हाथ में लेकर दान दिया है। उसको मान कर वहां के निवासियों, पटेलों, ग्रामीणों द्वारा जिस प्रकार दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि, देव व ब्राह्मण के द्वारा भोगे जाने वाले को छोड़ कर, आज्ञा सुन कर सभी इसके लिये देते रहना चाहिये । और इसका समान रूप फल मान कर हमारे वंश में व अन्यों में उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को मेरे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है२१. सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह भूमि जिसके अधिकार ___ में रही है तब २ उसी को उसका फल मिला है ।। २२. अपने द्वारा दी गई अथवा दूसरे के द्वारा दी गई भूमि का जो हरण करता है वह अपने पितरों के साथ विष्टा का कीड़ा बनता है। २३. सभी इन होने वाले नरेशों से रामचन्द्र बार २ याचना करते हैं कि यह सभी व्यक्तियों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है अत: आपको अपने २ काल में इसका पालन करना चाहिये। २४. इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये। संवत् १२७० वैशाख वदि १५ सोम (वार) । दू । श्री मु ३। यह महासांधिविग्रहक पं. श्री बिल्हण की सम्मति से राजगुरु मदन द्वारा रचा गया । ये हस्ताक्षर स्वयं महाराज श्रीमत् अर्जुनवर्मदेव के हैं। पंडित वाप्यदेव द्वारा उत्कीर्ण किया गया। (६१) सीहोर का अर्जुनवर्मन् का ताम्रपत्र अभिलेख (सं. १२७२=१२१५ ई.) प्रस्तुत अभिलेख तीन ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो पूर्ववणित अभिलेख क्र. ६० के साथ एफ. इ. हाल ने सीहोर में देखा था तथा इसका विवरण उसी के साथ छापा था। कीलहान के उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. १९८, भण्डारकर की सूचि क्र. ४६६ पर इसका उल्लेख है। ताम्रपत्र वर्तमान में कहां है सो अज्ञात है। इसी प्रकार इनके विवरण के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है । इसकी भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। इसमें अभिलेख ऋ. ६० के समान २४ श्लोक हैं, शेष गद्य में है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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