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डोंगरगांव अभिलेख
१८५ ५. . . 'जानकार जिसने हिमालय के शिखरपर आक्रमण शिथिल कर दिया ॥१८॥.... ६. . . . १९॥ उसके वियोग में सूखने वाले स्वर्ग में पुनः प्रीति' . . ७. . . ' युद्ध में सितारों की शोभा को धारण करने वाले (शत्रुओं) को उखाड़ कर मुंज... ८. . . 'शत्रुगण ।।२२।। रणक्षेत्र में विजयलक्ष्मी का वैधव्य . . . ९. · · · सेवा किया गया हुआ। निर्वाणनारायण ऐसा... १०. · · · हाथी त्रिशंकु की दिशा को (प्राप्त हो गये) ॥२६॥ . . ११. · · · रण में युद्धरत अश्व जल पीकर... १२. · · ·पाल भाल स्थल . . . १३. · · · ·मालिनी . . . .
.१४.
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(४२) डोंगरगांव का जगद्देव कालीन प्रस्तर अभिलेख
(शक संवत् १०३४ =१११२ ईस्वी) प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है, जो महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में डोंगरगांव में एक ध्वस्त मंदिर के द्वार पर लगा था। वि.वि. मिराशी ने इसका विवरण स्थानीय समाचार पत्र में छापा । बाद में एपि. इं., १९४१-४२, भाग २६, पृष्ठ १७७-१८५ में इसका सम्पादन किया।
अभिलेख का क्षेत्र १३०४२० सें. मी. है। इसमें ८ पंक्तियां हैं । लेख काफी जीर्ण है । पंक्ति १, ५, ७, ८ में प्रायः १२ अक्षर भग्न हो गये हैं। अक्षरों की बनावट १२ वीं सदी की नागरी है। प्रथम ६ पंक्तियों में अक्षरों की लम्बाई १.८ सें. मी. है, पंक्ति ७ में १.५ सें. मी. एवं पंक्ति ८ में १.३ सें. मी. है। यह स्थिति स्थानाभाव के कारण उत्पन्न हुई।
अभिलेख की भाषा संस्कृत है । प्रारम्भिक तीन शब्दों व अन्त में तिथि व लेखक के नाम को छोड़कर सारा अभिलेख पद्यमय है। इसमें १५ श्लोक हैं जो विभिन्न छन्दों में हैं। सभी श्लोक साहित्यिक भाषा में सुन्दर ढंग से रचे गये हैं। इसका रचयिता विश्वस्वामिन् एक श्रेष्ठ कवि प्रतीत होता है। . व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। पंक्ति ४ में अवग्रह का प्रयोग है । कुछ शब्द ही अशुद्ध हैं जिनको पाठ में ठीक कर दिया है।
. अभिलेख की तिथि अन्त में शक संवत् १०३४ चैत्र पूर्णिमा लिखी है। इसमें दिन का उल्लेख नहीं है । जिस भूभाग से अभिलेख मिला है वहां शक संवत् ही चालू था। उक्त वर्ष नन्दन संवत्सर था जो दक्षिणी पंचांग के अनुसार है। यह शुक्रवार, १५ मार्च १११२ ई. के बराबर है।
. अभिलेख परमार राजकुमार जगद्देव के शासन काल का है । इसका प्रमुख ध्येय जगद्देव द्वारा श्रीनिवास ब्राह्मण को डोंगरगांव दान में दिये जाने का उल्लेख करना है। वहां श्रीनिवास ने अपने पिता श्रीनिधि की पुण्यवृद्धि हेतु शिव का एक देवालय बनवाया था। जगद्देव का यही एक तिथि युक्त अभिलेख बरार क्षेत्र से प्राप्त है । उसका आदिलावाद जिले में जैनड से प्राप्त अन्य अभिलेख तिथि रहित है।।
. श्लोक २-३ में वंश के आदिपुरुष वीर परमार की होमाग्नि से उत्पत्ति का उल्लेख है । श्लोक ४ में भोजदेव एवं श्लोक ५ में उदयादित्य की प्रशंसा है। यहां लिखा है कि “जब मालव भूमि तीन शत्रुओं के सामूहिक आक्रमण के कारण (धूलि में) मग्न हो गई तो उस (भोज) के भ्राता उदयादित्य
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