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परमार अभिलेख
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उस (मुंज) का छोटा भाई विशाल कीर्तिमान सिंधुराज हुआ जो दैदीप्यमान बड़वाग्नि के समान स्पष्ट जिसका तेज है ऐसा, सुन्दरता से परिपूर्ण, पराक्रमाग्नि रूप था, जिसने संग्रामरूपी प्रलयकाल में चलायमान भुजाओं के झंझावात से कल्लोलरूप में परिणत हुए राजमंडलों के पटलों से शत्रु नरेशों को डुबा दिया ।
जब वह नरेश विजित होकर प्रस्थान करता था तब उसके चंचल अश्वों के वेग से उठे हुए धूल के बादल उसके शत्रुसमूह को ऐसे प्रतीत होते थे जैसे कि भयानक हाथियों के भार से क्षत भूमि की दरारों से उठने वाली सर्पनाशक अग्नि के धुऐं के समान हों ।
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शत्रुपक्ष के नरेश जिसको प्रलय के समुद्र की गंभीरता, कल्पों का अन्त करने वाली वायु के बल कच्छपावतार की स्थिरता, ब्रह्माण्ड रूपी भाण्ड की गुरुता, कालाग्नि के तेज और गगनमंडल की विशालता से युद्ध स्वीकार कर जानने लगे ।
उसका पुत्र श्री भोजदेव नरेश हुआ जो संसार का अद्वितीय भूषण था, जिसके चरण कमल नरेशों की चूडामणियों की कांति द्वारा अलंकृत थे, व जिसके चरणयुगल पर आज भी, जब कि वह इन्द्रासन पर विराजमान है, स्पर्धा के बंधन से विनम्र देवतागणों के मुकुटों के अग्रभागों की कांतियां आश्रय पाती हैं ।
जिसकी सेना, नगाड़ों की ध्वनियों झर्झरों की गर्जनों, बहुसंख्यक डमरूओं की कर्कश ध्वनियों एवं मृदंगों के गूंजते स्वरों से युक्त थी, और उन्मत्त गजों के पदविन्यासों की घबराहट से समस्त भवन मानों जिसमें घूम रहे हैं, ऐसे जगत में भ्रमण करती थी ।
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उस (भोजदेव ) के इन्द्र की बंधुता को प्राप्त होने पर ( दिवंगत होने पर) और राज्य - स्वामी के कौटुम्बिकों के संघर्षरूपी जल में मग्न होने पर उसका बंधु उदयादित्य नरेश हुआ, जिसने महासमुद्र के समान संयुक्त रूप से कर्णाट कर्ण आदि नरेशों के द्वारा पीड़ित इस पृथ्वी का उद्धार करके वराह अवतार का अनुसरण किया ।
३६.
आज भी जिसकी कीर्ति का देवसभा में गान करते हुए विष्णु चतुर्मुखी शिव से, शिव षडमुखी पुत्र कार्तिकेय से, कार्तिकेय सहस्रमुखी शेषनारायण से ( गुणगान की ) अभिलाषा करने लगे ।
अतिउग्र प्रताप के पवन से उत्पन्न हुई जो चकाचौंध के सामने से उत्पन्न हुए सूर्य के भ्रम से अभिमुख हुए जिन्होंने मृत्यु जिससे प्राप्त की। सूर्य मण्डल को छोड़कर यही सूर्य है ऐसा विश्वासपूर्वक मानकर के शत्रु सैनिक परम सुख को प्राप्त हुए ऐसा मैं मानता हूं ।
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एक सभा में उसकी विजय को देखकर और दूसरी सभा में स्तुतिगान ( का श्रवण करके ) दो सहस्र जिह्वाओं से समर्थन करता है, किन्तु जब आनन्द विभोर हो नेत्र बन्द कर लेता है (नेत्र ही कर्ण का कार्य करने के कारण ) तो श्रवण सुख से वंचित होने पर वह भुजंगराज अपने शरीर की निंदा करता है ।
३५.
तीनों लोकों में सूर्य के समान उस ( उदयादित्य ) का लक्ष्मदेव नामक पुत्र हुआ जो सम्यकरूप से प्रजापालन के कार्य में प्रजापति के समान दक्ष था, जिसने नीति द्वारा मनु का अनुकरण किया, 'दण्ड देने में वह यमराज नहीं ऐसा नहीं था । उससे उसकी नवीन कीर्ति सर्वत्र स्वयं ही फैलने लगी ।
जिसकी विजय यात्रा गर्जना के बहाने से घोषित कर रहा था कि कूर्मराज आदि मिलकर शक्तिपूर्वक पृथ्वी को वहन करें और जो शत्रुनरेश हैं वे या तो नष्ट हों या तत्काल नत हों । हे देवगणों, इससे पूर्व कि वे धूल से भर जावें, शीघ्र ही अपने नेत्रों को बन्द कर लो ।
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