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पाणाहेड़ा अभिलेख
(अनुवाद) ओं। ओं। शिव को नमस्कार। १. आकाश गंगा रुपी पट्ट को धारण करने वाले शैलसुता रूप शालभंजिका के कारण सुन्दर
तथा त्रिलोक रुपी मंडप के मूल स्तम्भरुप महादेव की जय हो। २. इस शिवजी की जय हो जिसके मस्तक पर. . . .। ३. ... .जिस शिव ने चन्द्रकला से अमृत प्राप्त करके. . . . . उस अघोर ने सुरा के प्राप्त
कर के भी हलाहल पी कर ही सुख को प्राप्त किया। जिस शिव ने समुद्रमंथन के समय वासुकी नाग को भी रस्सी बना दिया । . . . . . काले धुएं से पुष्ट हुए, पुनः श्री शंकर की जटाजूट में विराजमान चन्द्रलेखा की किरणों के द्वारा क्षतविक्षत हुए, सब दूर फैलने वाली सर्यों की विषैली श्वासों की
लहरों से पुष्ट हुए, महादेव के नीलकंठ. . . . . हमारा रक्षण करें। ५. ........विष्णु कुटुम्ब का पोषण करता है। मैनाक व अर्बुद की बहन (पार्वती)
'तेरा नाथ कौन है' ? मैं आपकी प्रिया हूं यह तो मिथ्या ही है' ऐसे पार्वती द्वारा अपमानित शिव आपका रक्षण करे। यहां आबु पर्वत पर. . . . विस्तृत यज्ञ करने पर कुण्डाग्नि से परमार नाम का दिव्य
पुरुष उत्पन्न हुआ। ७. .... .तीक्षण भुजाओं के दर्प से कठोर शत्रुकण्ठों की हड्डियों को चूर्ण करने के लिये
तीखी खङ्ग की धार . . . . . । ....... समस्त सामन्तों को सूचनार्थ बार-बार उग्र ध्वनि से दिशाओं को व्याप्त करने वाली शीघ्र बजाई गई हुई दुंदुभि के बजाने पर, सामन्तगण अपने-अपने पड़ावों से चले। जिनका अभिमान राज समूह, अश्व एवं सैनिकों के संघर्ष से उभर रहा था. . . . .। .....नेत्रों वाले, स्नान करने की इच्छा करने वाले पिशाचों ने उसके युद्ध स्थलों में (बहने वाली) और शक्तिशाली बाहुओं द्वारा प्रचण्ड तलवारों के आघात से मृत्यु को प्राप्त हाथियों के समूहों के भयंकर अस्थिपंजर रूपी किनारों वाली, फूटे हुए मानव सिरों के कीचड़ से (युक्त) अथाह, ऐसी रक्त की नदियों में तत्काल . . . . . .। . . . . . कंठों से स्पष्टतया बहने वाले रक्त से युद्ध भूमि को जिसने सिंचित कर दिया है, कार्यकुशल व्यक्तियों का बंधु राजा श्री मुंजदेव उत्पन्न हुआ जिसकी कीर्ति पर्वतों के कुंजों में रोमांचित किन्नरियों द्वारा गाई जाती है । ऊंचे घोड़ों के कठोर खुरों के खोदने से उठे हुए धूलि कणों से. . . . . भयभीत मन के कारण जिसका फणमंडल चंचल हो गया है ऐसा . . . . . बाद में ही अपना अतुलनीय
संतुलन प्राप्त कर सका। १२. ... . .सैकड़ों हाथियों के समूहों को तत्काल जीतने वाले जिसने शत्रु सैन्यों के मस्तक
पर चमकने वाली खड्ग की कांतिरूपी सलिल का छिड़काव करके जिनमें से वसा व
रक्त बह रहा है ऐसे योद्धाओं के कण्ठों को गद्धस्त्रियों के लिये दिया। १३. रम्भा की भुजायें . . . . . . परामक्रम का भंडार श्री सिंधुराज नरेश हुआ। जिसके चलने
वाले गज समूह के संघर्ष और विनोद से झुकने वाले भूमण्डल के भार को धारण करने में शेषनारायण महान क्लेश का अनुभव कर रहा था।
११.
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