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परमार अभिलेख
तिथि है जो पूरी तरह समझ में नहीं आती । वूलर महोदय इसके संबंध में लिखते हैं कि पंक्ति १३-१४ में अभिलेख का विक्रम संवत् १५६२, शक संवत् १४४७ (शुद्ध पाठ १४२७) अथवा कलियुग ४६०७ में किसी संग्रामवर्मा की आज्ञा से लिखा जाना सिद्ध होता है (एपि. इं. , भाग १, पृष्ठ २३३)। परन्तु प्रस्तुत पाठ में ये तिथियां ठीक से पढ़ने में नहीं आतीं। कलिपुग संवत् ४६०७ तिथि तो है ही नहीं। इसके अतिरिक्त संग्रामवर्मा का भी कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं होता इस कारण यह मानने में कठिनाई है कि अभिलेख बाद में ईसा की १५वीं शताब्दी में उत्कीर्ण करवा कर उदयेश्वर मंदिर में लगवाया गया था जैसा कि मिराशी महोदय ने भी लिखा है (स्ट. इ. मि., भाग २, १९६१, पृष्ठ ७८ )।
अभिलेख का प्रमुख ध्येय अनिश्चित है। संभवतः यह उदयादित्य की प्रशंसारूप एक प्रशस्तिमात्र हो । यह भी संभावना है कि उक्त नीलकंठेश्वर (उदयेश्वर) मंदिर का निर्माण १०५९ ईस्वी में उदयादित्य द्वारा अथवा उसके शासनकाल में निर्मित कराये जाने के उपलक्ष्य में प्रस्तुत प्रशस्ति उसमें लगवा दी गई हो । वास्तव में उक्त मंदिर में अनेक अभिलेख उत्कीर्ण हैं।
पंक्तिवार विवरण पर विचार करने से प्रतीत होता है कि इसका प्रारम्भ 'सिद्धि से होता है। इसके पश्चात गणेश, ओंम् व परब्रह्म को नमस्कार है। फिर ईशवन्दनायुक्त पार्वतीनाथ शिव की आराधना में एक श्लोक है । इसके उपरान्त पंक्ति २-३ में संभवतः दूसरा श्लोक है जिस में पावार (परमार) वंश के नरेश सूरवीर (शूरवीर) द्वारा मालव राज्य की स्थापना का उल्लेख है। निश्चित ही यह विवरण उदयपुर क्षेत्र में मालव राज्य की स्थापना को ही इंगित करता है। फिर उससे उत्पन्न पुत्र गोदल (गोंडल) राज्याधिकारी बना। अगले श्लोक के अनुसार, जो संभवतः पंक्ति ३-४ में है, तत्पुत्र पाता (ज्ञाता) ने शत्रुसैन्यों का मंथन कर (अरिबलमथन) राज्य प्राप्त किया, मालव (प्रदेश) में जा कर प्रसिद्धि प्राप्त की एवं धर्मानुसार आचरण कर तालाबों से युक्त मंदिरों का निर्माण किया। पंक्ति ५ में उल्लेख है कि उसने उदयादित्य को योग्य मानकर नरेश बनाया और कीर्ति अर्जित की। परन्तु यहां ज्ञाता का उदयादित्य से संबंध दिया हुआ नहीं है। संदर्भ में वह उसका पूत्र ही होना चाहिये क्योंकि आगे पंक्ति ११ में 'तस्यात्मजं' लिखा हुआ है।
अभी तक के विवरण के संबंध में उपरोक्त जर्नल में अभिलेख के सम्पादक ने विचार प्रकट किया है कि अरिवलमथन व्यक्तिवाचक नाम है और वह गोंडल का उत्तराधिकारी था। सम्पादक ने ज्ञाता का नाम कतई छोड़ दिया है। अरिवलमथन मालव गया और मध्यदेश को पुनः प्राप्त किया, जिस पर इसके पूर्वज राज्य करते थे और जो बाद में विरोधी राजाओं द्वारा छीन लिया गया था। उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र उदयादित्य था। इसके विपरीत हाल महोदय का मत है कि सौरवीर (शूरवीर) शब्द किसी राजा का नाम नहीं है। गोंडल पहला राजवंशी व्यक्ति है जिसका नाम अभिलेख में आया है। उसका पत्र ग्याता (ज्ञाता) प्रतीत होता है जिसके स्थान पर "पाता" लिख दिया गया है। यह ज्ञात्रि की प्रथमा विभक्ति ज्ञाता का संभवतः देशी विकृतरुप है। यदि अरिवलमथन शुद्ध पाठ हो तो यह संदिग्ध ज्ञाता का एक विशेषण है। यह व्यक्तिवाचक नाम नहीं हो सकता। उदयादित्य उस का पुत्र कहा गया है और यह स्पष्ट रुप से लिखा है कि वह संवत् १११६ व शक संवत् ९८१ तदनुसार १०५९ ईस्वी में राज्य कर रहा था (ज. अमे. ओ. सो., भाग ७, पृष्ठ ३५)। इस पर टिप्पणी करते हुए डी.सी. गांगुली लिखते हैं कि वे हाल से सहमत हैं कि अरिवलमथन व्यक्तिवाचक नाम नहीं है।
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