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परमार अभिलेख
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
__जो भुजंग की फैलने वाली विषाग्नि से सम्मिलित धूम्र के समान शोभायमान है, जो मस्तक पर लगे चन्द्र के अग्रभाग पर स्थित राहू के समान (कृष्णवर्ण) है और जो चंचल पार्वती के कपोलों पर बिखरी हुई कस्तूरिका के समान है, शिवजी के कण्ठ की ऐसी कांतियां तुम्हारे कल्याणों को पुष्ट करें॥१॥ ___ जो लक्ष्मी के मुखचन्द्र से सुखी नहीं हुआ, जो समुद्र से गीला (शांत) नहीं हुआ, जो निज नाभिस्थित कमल से शांत नहीं हुआ और जो शेषनाग के हजारों फणों से निकले हुए श्वासों से आश्वस्त नहीं हुआ, वह राधा की विरह से पीड़ित मुरारि का अशान्त शरीर तुम्हारा रक्षण
करे ॥२॥ ५. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री कृष्णराजदेव । ६. के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वैरिसिंहदेव के पादानुध्यायी ७. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक
महाराजाधिराज ८. परमेश्वर श्रीमान अमोघवर्षदेव अन्य नाम श्रीवाक्पतिराजदेव पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव । ९. कुशलयुक्त होकर अवन्ति मंडल में श्रीमान उज्जयनी विषय पूर्वपथक से सम्बद्ध मद्धक भुक्ति
में कडहिच्छक १०. ग्राम में आए हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के अन्य निवासियों, पटेलों और
ग्रामवासियों को ११. आज्ञा देते हैं—आपको विदित हो कि पूर्वपथक में ठहरे हुए हमारे द्वारा संवत् एक हजार
तेतालीस माघ मास में १२. उदगयन पर्व पर पुण्याभ्र नदी में स्नान कर, चर व अचर के स्वामी भगवान अम्बिकापति
(शिव) की पूजा कर संसार की असारता १३. देखकर
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भमात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानवप्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाली जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।३।।
घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार के समान आती जाती रहने वाली इस लक्ष्मी को पाकर
जो दान नहीं करते, इनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १५. यह जगत नाशवान (है), यह सभी विचार कर १६. यह ऊपर दान दिया गया ग्राम अपनी सीमा तृण गोचर गोयूति तक, साथ में वृक्ष पंक्तियों से व्याप्त
(दूसरा ताम्रपत्र) १७. जिसकी चारों सीमाएं निश्चित हैं, सारे भाग भोग कर हिरण्य व आय समेत मगध के
अन्तर्गत कणोपा ग्राम से आए १८. संकृति गोत्री वह वृच आश्वलायन शाखी त्रिप्रवरी दीक्षित लोकानन्द के पुत्र ब्राह्मण १९. सर्वानन्द के लिए माता, पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिए अदृष्ट फल को स्वीकार
कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक
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