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मोडासा अभिलेख
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. प्रस्तुत अभिलेख से ज्ञात होता है कि गुजरात का साबरकांठा-अहमदाबाद भूभाग भोजदेव के साम्राज्य के अन्तर्गत था। अभी तक हमें यही विदित था कि उक्त भूभाग भोजदेव के पितामह सीयक द्वितीय (९४८-९७४) ईस्वी के अधीन था। प्रस्तुत अभिलेख से ज्ञात होता है कि मूलराज (९६१-९९६ ई.) द्वारा अन्हिलपाटन में चौलुक्य शक्ति की स्थापना करने पर भी उक्त भूभाग सीयक द्वितीय व उसके उत्तराधिकारियों के अधीन बना रहा । यह तथ्य भी विचारणीय है कि चौलुक्य मूलराज व उसके उत्तराधिकारी के अभिलेखों में साबरमती नदी के ऊपरी भाग के पूर्व दिशा में स्थित किसी स्थान का उल्लेख नहीं है। अत: यह मानना होगा कि इस काल में चौलुक्य राज्य की पूर्वी सीमा यहीं तक थी (ए. के. मजुमदार-चौलुक्याज़ ऑफ गुजरात, पृष्ठ ३२)।
अभिलेख में उल्लिखित भौगोलिक स्थानों में मोहडवासक प्रस्तुत अभिलेख का प्राप्ति स्थल मोडासा है। यह उक्त काल में एक मण्डल था जो अर्धाष्टम मंडल के नाम से प्रख्यात था। श्री सीयक द्वितीय के संवत् १००५ के हरसोल अभिलेख में भी मोहडवासक का एक मंडल के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है। शयनपाट ग्राम मोडासा से उत्तर की ओर ६ मील की दूरी पर स्थित सिनवाद या सेनवाद ग्राम है। हर्षपुर जहां से दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण निकल कर आया था संभवतः साबरकांठा जिले का हरसोल ग्राम ही है । यह भी संभव है कि यह परवर्ती परमार नरेश देवपाल देव के संवत् १२७५ का हरसूद ही हो जो मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के अन्तर्गत है। यदि यह किसी स्थान का नाम हो तो वल्लोटक संभवतः शयनपाट ग्राम के पास ही कोई स्थान रहा होगा।
मूलपाठ (अग्रभाग)
१. सिद्धम् । संवत्सर शतेषु दशशु (सु) सप्तषप्टय (ष्टय)धिकेप्र (शु) ज्येष्ठ-शुक्ल-पत्क (पक्ष) प्रतिप२. दायां संवत् १०६७ ज्येष्ट (ष्ठ)- [शु]दि १ रवायेह समस्त वृ(ब)हद्राजावली३. प्व(पू)व-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेस्व (श्व)र-श्रीसोयकदेव पदनुध्यत (पादानुध्यात)
प४. रमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेस्व (श्व) र-श्रीवाक्पतिरज (राज) देव-पादानुध्यत (ध्यात)
परमभट्टारक-मह (हा) राज (जा)धिराज-परमेस्व (श्व) र-श्रीसिंधुराजदेव-प(पा) दानुध्य (ध्या)त
परमभट्टारक-म६. ह (हा) राज (जा)धिराज-परमेस्व (श्व) र-श्रीभोजदेव-राज्ये श्री मोहडवा[शा (स)] कार्ड्सष्टम
मंडले ७. भोत्कार-महाराजपुत्र-श्री वत्सराजो (ज) इहैव वल्लोटकीय-चातुर्जातकीय-[श्रुताध्य८. यन-संपन (न)-प्रवर-वा (ब्रा)ह्मण-देईस्य (य) [श]यनपाटग्रामे-प्रदत्त-हलद्व९. य-भूमी (मि) सा (शा)सनं प्रयछ (च्छ) यत्येवं यथा [श]यनपाटग्रामे कोद्रवतिक मुद्रि]१०. व्रीहि-कन्ति (णि) क-आदि-क्षेत्रभूमि स्वचतुराघट्टनयंयत्या (राघाटसंयुक्ता) तथा ग्राममध्ये
गृह-खल११. धान्य-समेताऽस्य वा (ब्रा)ह्मणस्य हर्षपुर-विनिर्गताय उपानस्य (औपमन्यव ?) सगोत्राय१२. गोपादित्य- [सु]ताय चातुर्जातकीय-वी (वि)प्र-देद्दाकस्य (काय) धर्मा (म) हेतवे सा (शा) सना
क (का) रेण प्रद
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