________________
अहमदाबाद अभिलेख
अभिलेख की तिथि पंक्ति क्र. ९ में अंकों में संवत् १०२६ आश्विन वदि १५ लिखी है। यह अमावस्या को इंगित करता है। पूर्ववणित अभिलेखों में अमावस्या के लिये 'वदि ३०' लिखा है। प्रतीत होता है कि १० वीं सदी में अमावस्या दर्शाने हेतु दोनों प्रकार से अंकन कर दिया जाता होगा। समीकरण करने पर यह तिथि गुरुवार १४ अक्तूबर ९६९ ई० के बराबर निर्धारित की जा सकती है।
अभिलेख का प्रमुख ध्येय, दान का विवरण एवं दान प्राप्तकर्ता का नामादि प्रथम ताम्रपत्र में रहे होंगे जो अप्राप्य है।
अभिलेख में यद्यपि श्री सीयक के वंश व पिता के नामों का अभाव है परन्तु ताम्रपत्र के प्राप्तिस्थान, भाषा, लिपि व तिथि आदि से यह मानने में कोई कठिनाई नहीं है कि वह परमार राजवंशीय नरेश वाक्पति मुंज व सिंधुराज का पिता सीयक द्वितीय था। पूर्ववर्णित हरसोल के दोनों ताम्रपत्र भी इसी नरेश के हैं। कवि धनपाल द्वारा रचित प्राकृत ग्रन्थ पाईयलच्छी (इं. ऐं., भाग ३६, १९०७, पृष्ठ १६९, श्लोक' क्र. २७६-८) से ज्ञात होता है कि इसने अपना ग्रन्थ संवत् १०२९ तदनुसार ९७२ ई० में पूरा किया था जब मालव सेनाओं ने मान्यखेट को जीत कर लूटा था। उत्तरकालीन नरेश उदयादित्य की तिथि रहित उदयपुर प्रशस्ति (अभिलेख क्र. २२) के श्लोक क्र. १२ से ज्ञात होता है कि श्री हर्ष, अन्य नाम सीयक द्वितीय, ने राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिगदेव पर विजय प्राप्त की थी। अतः इसके उपरान्त ही सीयक' ने राष्ट्रकूट राजधानी मान्यखेट को लूटा होगा। इस आधार पर श्री सीयक' का संवत् १०२९ में शासन करना निश्चित होता है । प्रस्तुत ताम्रपत्र उस तिथि से तीन वर्ष पूर्व एवं हरसोल ताम्रपत्र से २१ वर्ष बाद का है । प्रस्तुत अभिलेख से भी प्रारम्भिक वर्षों में परमारों का संबंध गुजरात से होना प्रमाणित होता है।
अभिलेख में भौगोलिक नाम का अभाव है। इस में दानमहिमा दर्शाने वाले एवं दानभंग करने की स्थिति में शापयुक्त श्लोक ही है, इस कारण इसका मूल पाठ दिया जा रहा है हिन्दी अनुवाद नहीं दिया जा रहा है ।
मूल पाठ
(श्लोक १ अनुष्टुभ, २ इन्द्रवज्रा, ३ वसन्ततिलका, ४ शालिनी, ५ पुष्पिताग्रा) १. सामान्यं चैतत्पुण्यफलं वु (बु) द्ध्वास्मद्वंशजैरन्यैरपि भावि-भोक्तृभिरस्मत्प्रदत्त-धर्मादायोय२. म [नु] ग (म)न्तव्यप्पा (व्य: पा)लमी (नी) श्श (श्च) [।] उक्तं च भग[व]ता व्यासेन [1]
व (ब) हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य
यदा भूमि[स्त]स्य तस्य तदा फलं (लम्) ।। [१] यानीह दत्तानि पुरा नरे () दानानि धर्मार्थयशष्क (स्क) राणि [1] निर्मा
ल्यवा [न्तः] प्रतिमानि तानि को नाम साधुप्पु (धु:पु) नराददीत ।। [२] अस्मत्कुलक्रममुदारमुदाहरद्भिरन्य
- श्च दाम (न)मिदमभ्यनुमोदनीयं (यम्) । लक्ष्म्यास्तडित्सलिल-बुबु (बुबु) द च (चं) चलायाः दान (नं) फलं परयश
प(:प)रिपालनं च ।। [३]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org