Book Title: Panchastikaya
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 183
________________ १४६ श्रीमदराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । निष्क्रियत्वेन सकललोकवर्तिनोर्जीवपुद्गलयोर्गतिस्थित्युपग्रहणकरणालोकमात्राविति ॥८७॥ धर्माधर्मयोर्गतिस्थितिहेतुत्वेऽप्यत्यंतौदासीन्याख्यापनमेतत् ;ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करोदि अण्णदवियस्स । हवदि गतीस पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च ॥ ८८ ॥ न च गच्छति धर्मास्तिको गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य । ___ भवति गतेः सः प्रसरो जीवानां पुद्गलानां च ॥ ८८ ॥ यथा हि गतिपरिणतः प्रेभञ्जनो वैजयंतीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते न तथा धर्मः । स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते । कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां गतिपरिणामस्य हेतुकतृत्वं ? किंतु सलिलमिव मत्स्यानां जीवपुद्गलानामाश्रयकारणमात्रत्वेनोदासीन एवाऽसौ गतेः प्रसरों भवति । अपि च यथा गतिपूर्वतौ च किंविशिष्टौ ? भिन्नास्तित्वनिष्पन्नत्वानिश्चयनयेन पृथग्भूतौ एकक्षेत्रावगाहत्वादसद्भूतव्यवहारनयेन सिद्धराशिवदभिन्नौ सर्वदैव निःक्रियत्वेन लोकव्यापकत्वाल्लोकमात्राविति सूत्रार्थः ॥८॥ अथ धर्माधर्मों गतिस्थितिहेतुत्वविषयेत्यंतोदासीनाविति निश्चिनोति;-ण य गच्छदि नैव गच्छति । स कः ? धम्मत्थी धर्मास्तिकायः गमणं न करेदि अण्णदवियस्स गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य हवदि तथापि भवति । स कः ? पसरो प्रसरः प्रवृत्तिः । कस्याश्च ? गदिस्स य गतेश्च । केषां गतेः ? जीवाणं पोग्गलाणं च जीवानां पुद्गलानां चेति । हैं। यदि ये धर्म अधर्म द्रव्य लोकमें नहीं होते तो लोक-अलोक का भेद ही नहीं होता । सब जगह ही लोक होता । इसलिये धर्म अधर्म द्रव्य अवश्य हैं। जहां तक जीव पुद्गल गति-स्थितिको करते हैं वहां तक लोक है, उससे परे अलोक जानो। इसी न्याय से लोक-अलोकका भेद धर्म-अधर्म द्रव्यसे जानो । ये धर्म अधर्म द्रव्य दोनों ही अपने अपने प्रदेशोंको लिये हुये जुदे जुदे हैं । एक लोकाकाश क्षेत्रकी अपेक्षा जुदे जुदे नहीं हैं। क्योंकि लोकाकाशके जिन प्रदेशोंमें धर्मद्रव्य है उन ही प्रदेशोंमें अधर्मद्रव्य भी है। दोनों ही हलनचलनरूप क्रियासे रहित सर्वलोकव्यापी हैं। समस्त लोकव्यापी जीवपुद्गलोंको गति-स्थितिमें सहकारी कारण हैं । इसलिये दोनोंही द्रव्य लोकमात्र असंख्यातप्रदेशी हैं ॥ ८७ ॥ आगे धर्म अधर्म द्रव्य प्रेरक होकर गति स्थितिमें कारण नहीं है, अत्यंत उदासीन हैं, ऐसा कथन करने को गाथा कहते हैं । [ धर्मास्तिकः ] धर्मास्तिकाय [ न ] नहीं [गच्छति ] चलता है । [च ] और [ अन्यद्रव्यस्य ] अन्य जीव पुद्गलका प्रेरक होकर [ गमनं ] हलन चलन क्रियाको [ न ] नहीं [ करोति ] करता है [ सः ) वह धर्मद्रव्य [ जीवानां ] जीवोंकी और [ पुद्गलानां ] पुद्गलोंकी [ गतेः ] हलन चलन क्रियाका [ प्रसरः ] १ वायुः. २ पताकानाम्. ३ धर्मद्रव्यस्य. ४ प्रवर्तको भवति, न प्रेरकतया प्रेरकः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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