Book Title: Panchastikaya
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 188
________________ पश्चास्तिकायः । १५१ जीवादीनि शेषद्रव्याण्यवधृतपरिमाणत्वालोकादनन्यान्येव । आकाशं त्वनंतत्त्वाल्लोकादनन्यदन्यच्चेति ।। ९१ ॥ आकाशस्यावकाशैकहेतोर्गतिस्थितिहेतुत्वशङ्कायां दोषोपन्यासोऽयम् ; आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहि देदि जदि । उड्ढंर्गादप्षधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ ॥१२॥ आकाशमवकाशं गमनस्थितिकारणाभ्यां ददाति यदि । ऊर्ध्वगतिप्रथानाः सिद्धाः तिष्ठन्ति कथं तत्र ॥ ९२॥ यदि खल्वाकाशमवगाहिनामवगाहहेतुतिस्थितिमतां गतिस्थितिहेतुरपि स्यात्, तदा त्वनिरंजनत्वादिलक्षणेन शेषद्रव्येभ्यो जीवानामन्यत्वं स्वकीयस्वकीयलक्षणेन शेषद्रव्याणां च जीवेभ्यो भिन्नत्वं । तेन कारणेन ज्ञायते संकरव्यतिकरदोषो नास्तीति भावः ॥ ९१ ॥ एवं लोकालोकाकाशद्वयस्वरूपसमर्थनरूपेण प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतं । अथाकाशं जीवादीनां यथावकाशं ददाति तथा यदि गतिस्थिती अपि ददाति तदा दोषं दर्शयति;-आयासं आकाशं कर्तृ देदि जदि ददाति यदि चेत् । किं ? अवगासं अवकाशमवगाहं । कथं सह काभ्यां ? गमणद्विदिकारणेहिं गमनस्थितिकारणाभ्यां । तदा किं दूषणं ? उड्डू गदिप्पधाणा निर्विकारविशिष्टचैतन्यप्रकाशमात्रेण कारणसमयसारभावनाबलेन नारकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिविनाशं कृत्वा पश्चात्स्वाभाविकोर्ध्वगतिस्वभावाः संतः । के ते १ सिद्धा स्वभावोपलब्धिसिद्धिरूपाः सिद्धा भगवंतः चेटुंति किह तिष्ठन्ति कथं ? कुत्र ? तत्थ तत्र लोकाप्र इति । अत्र सूत्रे जीवादि पदार्थ कैसे समा रहे हैं ? उत्तर-एक घरमें जिस प्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश समा रहा है और जिसप्रकार एक छोटेसे गुटकेमें बहुतसी सुवर्णकी राशि रहती है, उसी प्रकार असंख्यातप्रदेशी आकाशमें साहजिक अवगाहना-स्वभावसे अनंत जीवादि पदार्थ समा रहे हैं । वस्तुओंके स्वभाव वचनगम्य नहीं हैं । सर्वज्ञ देव ही जानते हैं । इस कारण जो अनुभवी हैं वे सन्देह उत्पन्न नहीं करते, वस्तुस्वरूपमें सदा निश्चल होकर आत्मीक अनंत सुख का वेदन करते हैं ॥९१ ।। आगे कोई प्रश्न करे कि धर्म-अधर्मद्रव्य को गतिस्थितिमें कारण क्यों कहते हो ? आकाशको ही गति-स्थितिका कारण क्यों नहीं कह देते ? उसे दूषण दिखाते हैं;-[ यदि ] यदि [ आकाशं ] आकाश नामक द्रव्य [गमनस्थितिकारणाभ्यां ] चलन और स्थिरताके कारण धर्म अधर्म द्रव्योंके गुणोंसे [ अवकाशं ] जगह [ ददाति ] देता है [तदा] तो [ऊवंगतिप्रधानाः ] ऊर्ध्वगतिवाले प्रसिद्ध जो [ सिद्धाः ] मुक्त जीव हैं वे [ तत्र ] सिद्धक्षेत्रमें [कथं ] कैसे [ तिष्ठन्ति ] रहते हैं ? भावार्थ-यदि गमन-स्थितिका जीवपुद्गलानाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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