Book Title: Panchastikaya
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 263
________________ श्रीमदराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यावत् । अथ खलु यदि कथश्चनोद्भिन्नसम्यग्ज्ञानज्योतिर्जीवः परसमयं व्युदस्य स्वसमयमुपादत्ते तदा कर्मबंधादवश्यं अश्यति । यतो हि जीवस्वभावनियतं चरितं मोक्षमार्ग इति ॥ १५५ ॥ परचरितप्रवृत्तस्वरूपाख्यानमेतद - जो परदव्वम्मि सुहं असुहं राणेण कुणदि जदि भाव । सो सगचरित्तभट्ठो परचरियचरो हवदि जीवो ॥ १५६ ॥ या परद्रव्ये शुभमशुभं रागेण करोति यदि भावं । स स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरितचरो भवति जीवः ॥ १५६ ॥ यो हि मोहनीयोदयानुवृत्तिवशाद्रज्यमानोपयोगः सन् , परद्रव्ये शुभमशुभं वा भावकर्मबंधात् तदा केवलज्ञानाद्यनंतगुणव्यक्तिरूपान्मोक्षात्प्रतिपक्षभूतो योऽसौ बंधस्तस्माच्च्युतो भवति । ततो ज्ञायते स्वसंवित्तिलक्षणस्वसमयरूपं जीवस्वभावनियतचरितमेव मोक्षमार्ग इति भावार्थः ॥१५५।। एवं स्वसमयपरसमयभेदसूचनरूपेण गाथा गता । अथ परसमयपरिणतपुरुषस्वरूपं पुनरपि व्यक्तीकरोति;-जो परदव्वनि सुहं असुहं रायेण कुणदि जदि भावं यः परद्रव्ये शुभमशुभं वा रागेण करोति यदि भावं सो सगचरित्तभट्टो सः स्वकचरित्रभ्रष्टः सन् परचरियचरो हवदि जीवो परचरित्रचरो भवति जीव इति । तथाहि - यः कर्ता शुद्धगुणपर्यायपबन्ध होनेसे [ प्रभ्रस्यति ] रहित होता है । भावार्थ-यद्यपि यह संसारी जीव अपने निश्चित स्वभावसे ज्ञानदर्शनमें तिष्ठता है तथापि अनादि मोहनीय कर्मके वशीभूत होनेसे अशुद्धोपयोगी होकर अनेक परभावोंको धारण करता है। इस कारण निजगुणपर्यायरूप नहीं परिणमता, परसमयरूप प्रवर्तता है । इसीलिये परचारित्रके आचरनेवाला कहा जाता है। और वह ही जीव यदि काल पाकर अनादिमोहनीयकर्मकी प्रवृत्तिको दूर करके अत्यन्त शुद्धोपयोगी होता है और अपने एक निजरूपको ही धारण करता है, अपने ही गुणपर्यायोंमें परिणमता है, स्वसमयरूप प्रवर्तित होता है तब आत्मीक चारित्रका धारक कहा जाता है । जब यह आत्मा किसी प्रकार निसर्ग अथवा अधिगमसे प्रगट हो सम्यग्ज्ञान ज्योतिर्मयी होता है, परसमयको त्यामकर स्वसमयको अंगीकार करता है तब यह आत्मा अवश्य ही कर्मबन्धसे रहित होता है, क्योंकि निश्चल भावोंके आचरणसे ही मोक्ष सधता है ॥ १५५ ॥ आगे परचारित्ररूप परसमयका स्वरूप कहा जाता है;[ यः ] जो अविद्या-पिशाची-ग्रहीत जीव [ परद्रव्ये ] आत्मीक वस्तुसे विपरीत परद्रव्यमें [ रागेण ] मदिरापानवत् मोहरूपभावसे [ यदि ] जो [ शुभं ] व्रत भक्ति संयमादि भाव अथवा [ अशुभं भावं ] विषयकषायादि असत् भावको [ करोति ] करता है [ सः जीवः ] वह जीव [ स्वकचरित्रभ्रष्टः ] आत्मीक शुद्धाचरणसे रहित [ परचरितचरः ] परसमयका आचरणवाला [ भवति ] होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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