Book Title: Panchastikaya
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 288
________________ पञ्चास्तिकायः । २५१ रालसचेतसो मत्ता इव, मूञ्छिता इव, सुषुप्ता इव, प्रभूतघृतसितोपलपायसासादितसौहित्या इव, समुल्लणबलसञ्जनितजाड्या इव, दारुणमनो-भ्रंशविहितमोहा इव, मुद्रितविशिष्टचैतन्या वनस्पतय इव, मौनीन्द्रीं कर्मचेतनां पुण्यबंधमयेनानवलम्बमाना अनासादितपरमनैष्कर्म्यरूपज्ञानचेतनाविश्रान्तयो व्यक्ताव्यक्तप्रमादतन्द्रा अरमागतकर्मफलचेतनाप्रधानप्रवृचयो वनस्पतय इव केवलं पापमेव बघ्नन्ति । उक्तञ्च-"णिच्छयमालम्बंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता। णासंति चरणकरणं वाह रिचरणालसा केई" | ये तु पुनरपुनर्भवाय नित्यविहितोद्योगमहाभागा भगवन्तो निश्चयव्यवहारयोरन्यतरानवलम्बनेनात्यन्तमध्यस्थीभूताः । शुद्धचैतन्यरूपात्मतत्त्वविश्रान्तिविरचनोन्मुखाः प्रमादोदयानुवृत्तिनिर्वतिका क्रियामोक्षमार्ग तत्साधकं व्यवहारमोक्षमार्ग मन्यन्ते तर्हि चारित्रमोहोदयात् शक्त्यभावेन शुभाशुभानुष्ठानरहिता अपि यद्यपि शुद्धात्मभावनासापेझशुभानुष्ठानरतपुरुषसहशा न भवन्ति तथापि सरागसम्यक्त्वादिदानव्यवहारसम्यग्दृष्टयो भवन्ति परंपरया मोक्षं च लभते इति निश्चयैकान्तव्यवहार पदको पाते हैं। 'इतो भ्रष्टः ततो भ्रष्टः' होकर बीच में ही प्रमादरूपो मदिराके प्रभावसे चित्तमें मतवाले हुये मूर्छितसे हो रहे हैं। जैसे कोई बहुत घो, मित्रो, दुग्ध इत्यादि गरिष्ठ वस्तुके भोजनपानसे सुथिर आलसी हो रहे हैं। अर्थात् अपनी उत्कृष्ट देहके बलसे जड़ हो रहे हैं । महा भयानक भावसे मानों कि वे मनकी भ्रष्टतासे मोहित-विक्षिप्त हो गये हैं। चैतन्य-भावसे रहित मानो कि वे वनस्पति ही हैं। मुनि-पदवी करनेवाली कर्मचेतना का पुण्यबंधके भयसे अवलंबन नहीं करते और परमनिःकर्मदशारूप ज्ञानचेतनाको अङ्गीकार को ही नहीं, इस कारण अतिशय चंचलभावोंके धारी हैं। प्रगट अप्रगटरूप जो प्रमाद हैं उनके आधीन हो रहे हैं । महा अशुद्धोपयोगसे आगामी कालमें कर्मफल चेतनासे प्रधान होते हुये वनस्पतिके समान जड़ हैं । केवल मात्र पापही के बांधनेवाले हैं। सो कहा भी है कि : उक्तं च ( गाथा ) "णिच्छयमालंवंता, णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता । णासंति चरणकरणं, वाहरिचरणालसा केई" ॥२॥ अर्थात्-जो कोई पुरुष मोक्षके निमित्त सदाकाल उद्यमी हो रहे हैं वे महा भाग्यवान हैं । निश्चय व्यवहार इन दोनों नयोंमें किसी एकका पक्ष नहीं करते, सर्वथा मध्यस्थ भाव रखते हैं । शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्वमें स्थिरता करनेके लिये सावधान रहते हैं । जब प्रमादभावकी प्रवृत्ति होती है तब उसको दूर करनेके लिये शास्त्राज्ञानुसार १ निश्चयमालम्बन्तो, निश्चयतो निश्चयं अजानन्तः । नाशयन्ति चरणकरणं, बाह्यचरणालसा: वेऽपि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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