Book Title: Panchastikaya
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 286
________________ पञ्चास्तिकायः । २४९ व्युत्थापननिरोधाय नित्यबद्धपरिकराः, उपबृंहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनां भावयमाना, वारंवारमभिवर्धितोत्साहा, ज्ञानचरणाय स्वाध्यायकालमवलोकयन्तो, बहुधा विनयं प्रपञ्चयन्तः, प्रविहितदुर्द्धरोपधानाः, सुष्टु बहुमानमातन्वन्तो, निवापत्ति नितरां निवारयन्तोऽर्थव्यञ्जनतदुभयशुद्धौ नितान्तसावधानाः, चारित्राचरणाय हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहसमस्तविरतिरूपेषु पञ्चमहाव्रतेषु तन्निष्ठवृत्तयः, सम्यग्योगनिग्रहलक्षणासु गुप्तिषु नितान्तं गृहीतोद्योगा, ईर्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गरूपासु समितिष्वत्यन्तनिवेशितप्रयत्नास्तप आचरणायानशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशेवभीक्ष्णमु. स्सहमानाः, प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गस्वाध्यायध्यानपरिकरांकुशितस्वान्ता, वीर्याचरपरिभ्रमंतीति, यदि पुनः शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं निश्चयमोझमार्ग मन्यते निश्चयमोझमार्गानुष्ठानशक्त्यभावानिश्चयसाधकं शुभानुष्ठानं च कुर्वन्ति तर्हि सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति परंपरया मोक्षं लभन्ते इति व्यवहारैकान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं । येपि केवलनिश्चयनयावलंहै। अकेले व्यवहारसे खेदखिन्न हैं। बारंबार परद्रव्यस्वरूप धर्मादिक पदार्थों में श्रद्धानादिक अनेक प्रकारकी बुद्धि करते हैं । बहुत द्रव्यश्रुतके पठनपाठनादि संस्कारसे नानाप्रकारके विकल्पजालोंसे कलंकित अन्तरंगवृत्तिको धारण करते हैं। अनेकप्रकार यतिका द्रव्यलिंग, जिन बहिरंगना तप त्यादिक कर्मकांडोंके द्वारा होता है, उनका ही अवलंबन कर स्वरूपसे भ्रष्ट हुआ है। दर्शनमोहके उदयसे व्यवहार धर्मरागके अंशसे किसी कालमें पुण्यक्रियामें रुचि करता है, किसी कालमें दयावन्त होता है, किसी कालमें अनेक विकल्पोंको उपजाता है, किसी कालमें कुछ आचरण करता है, किसी कालमें दर्शनके आचरण निमित्त समताभावको धरता है, किसी कालमें प्रगटदशाको धरता है । किसी कालमें धर्ममें अस्तित्वभावको धारण करता है, शुभोपयोग प्रवृत्तिसे शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि आदिक भावोंके उत्थापनके निमित्त सावधान होकर प्रवृत्ति करता है । केवल व्यवहारनय रूपही उपवृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावनांगादि अंगोंकी भावना भाता है। बारंबार उत्साहको बढाता है । ज्ञानभावनाके निमित्त पठन पाठनका काल विचारता रहता है। बहुत प्रकार विनयमें प्रवृत्ति करता है। शास्त्रकी भक्ति के निमित्त बहुत आरम्भ भी करता है । भले प्रकार शास्त्रका मान करता है। गुरु आदिकमें उपकारप्रवृत्तिसे मुकरता नहीं है। एक कालमें अर्थ, व्यंजन और तदुभयकी शुद्धतामें सावधान रहता है । चारित्रके धारण करनेके लिये हिंसा, असत्य, चोरी, स्त्रीसेवन, परिग्रह इन पाँच अधर्मों के सर्वथा त्यागरूप जो पंचमहाव्रत हैं उनमें थिरवृत्तिको करता है। जिनमें मनवचनकायका निरोध है ऐसी तीन गुप्तियोंसे निरन्तर योगावलंबन करता है। ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग ये पांच समिति हैं, उनमें सर्वथा प्रयत्न करता है । तप आचरणके निमित्त अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश इन छह प्रकारके बाह्य ३२ पञ्चा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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