Book Title: Panchastikaya
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 268
________________ पञ्चास्तिकायः। २३१ धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं ज्ञानमङ्गपूर्वगतं । चेष्टा तपसि चर्या व्यवहारो मोक्षमार्ग इति ॥१६॥ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्र धर्मादीनां द्रव्यपदार्थविकल्पवतां तत्त्वार्थश्रद्धानभावस्वभावं भावान्तरं श्रद्धानाख्यं सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धाननिवृत्तौ सत्यामङ्गपूर्वगतार्थपरिच्छित्तिर्ज्ञानम् । आचारादिसूत्रप्रपश्चितविचित्रयतिवृत्तसमस्तसमुदयरूपे तपसि चेष्टा चर्या । इत्येषः स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्यानुगम्यमानो मोक्षमार्गः । कार्तस्वरपाषाणार्पितदीप्तजातवेदोवत्समाहितान्तरङ्गस्य प्रतिपदमुपरितनशुद्धभूमिकासु परमरम्यासु विश्रान्तिमभिन्नां निष्पादयन् , जात्यकार्तस्वरयद्यपि पूर्व जीवादिनवपदार्थपीठिकाव्याख्यानप्रस्तावे "सम्मत्तं णाणजुदं” इत्यादि व्यवहारमोक्षमार्गो व्याख्यातः तथापि निश्चयमोक्षमार्गस्य साधकोयमिति ज्ञापनार्थ पुनरप्यमिधीयते,-धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं भवति तेषामधिगमो ज्ञानं द्वादशविधे तपसि चेष्टा चारित्रमिति । इतो विस्तरः । वीतरागसर्वज्ञप्रणीतजीवादिपदार्थविषये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं चेत्युभयं ग्रहस्थतपोधनयोः समानं चारित्रं तपोधनानामाचारादिचरणग्रंथविहितमार्गेण प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्य पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिषडावश्यकादिरूपं, गृहस्थानां पुनरुपासकाध्ययनग्रंथविहितमार्गेण पंचमगुणस्थानयोग्यं दानशीलपूजोपवासादिरूपं दार्शनिकाव्रतिकाोकादशनिलयरूपं वा इति तथा पदार्थोंका श्रद्धान अर्थात् प्रतीति व्यवहार -सम्यक्त्व है [ अङ्गपूर्वगतं ] ग्यारह अंग, चौदह पूर्व में प्रवर्त्तनेवाला जो ज्ञान है सो [ ज्ञानं ] व्यवहाररूप सम्यग्ज्ञान है और [ तपसि ] बारह प्रकारके तप तथा तेरह प्रकारके चारित्रमें [ चेष्टा ] आचरण करना सो [ चर्या ] व्यवहाररूप चारित्र है [ इति ] इस प्रकार [ व्यवहारः । व्यवहारात्मक [ मोक्षमार्गः ] मोक्षका मार्ग कहा गया है । भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनोंकी एकता मोक्षमार्ग है । षद्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्त तत्त्व और नव पदार्थका श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन है। द्वादशांगके अर्थका जानना सो सम्यग्ज्ञान है । आचारादि ग्रन्थकथित यतिका आचरण सो सम्यकचारित्र है । यह व्यवहारमोक्षमार्ग जीवपुद्गलके सम्बन्धका कारण पाकर जो पर्याय उत्पन्न हुई है उसीके आधीन है। और साध्य भिन्न है साधन भिन्न है । साध्य निश्चय मोक्षमार्ग है, साधन व्यवहार मोक्षमार्ग है । जैसे स्वर्णमय पाषाणमें दीप्यमान अग्नि पाषाण और सोनेको भिन्न भिन्न करती है वैसे ही जीवपुगलकी एकताके भेदका कारण व्यवहार मोक्षमार्ग है । जो जीव सम्यग्दर्शनादिकसे अन्तरंगमें सावधान है उस जीवके सब जगह अपरके शुद्ध गुणस्थानोंमें शुद्धस्वरूपकी वृद्धिसे अतिशय मनोज्ञता है। उन गुणस्थानोंमें थिरताको धारण करता है ऐसा व्यवहार मोक्षमार्ग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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