Book Title: Panchastikaya
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 201
________________ १६४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । नंमर्थतोऽर्थितयाऽवबुध्यात्रैव जीवास्तिकायांतर्गतमात्मानं स्वरूपेणात्यंतविशुद्धचैतन्यम्वभावं निश्चित्य परस्परकार्यकारणीभूतानादिरागद्वेषपरिणामकर्मबंधसंततिसमारोपितस्वरूपविकारं तदौत्वेऽनुभृयमानमवलोक्य तत्कालोन्मीलितविवेकज्योतिः कर्मबंधसंततिप्रवर्तिकां रागद्वेषपरिणतिमत्य॑स्यति,से खलु जीर्यमाणस्नेहो जघन्यस्नेहगुणाभिमुखपरमाणुवद्भाविबंधपराङ्मुखः पूर्वधात्प्रच्यवमानः शिखितप्तोदकदौस्थ्यानुकारिणो दुःखस्य परिमोक्ष विगाहत इति १०३॥ एवं विज्ञाय । किं करोति ? जो मुयदि यः कर्ता मुञ्चति । कौ कर्मतापन्नौ । गयदोसे अनंतज्ञानादिगुणसहितवीतरागपरमात्मनो विलक्षणौ हर्षविषादलक्षणौ भाविरागादिदोषोत्पादककर्मास्रवजनकौ च रागद्वेषौ द्वौ। सो सः पूर्वोक्तः ध्याता गाहदि गाहते प्राप्नोति । कं ? दुक्खपरिमोक्खं निर्विकारात्मोपलब्धिभावनोत्पन्नपरमाल्हादैकलक्षणसुखामृतविपरीतस्य नानाप्रकारअनिष्ट पदार्थोंमें प्रीति और द्वेषभावको [ मुश्चति ] छोड़ता है [ सः ] वह पुरुष [ दुःखपरिमोक्षं ] संसारके दुःखोंसे मुक्ति को [ गाहते ] प्राप्त होता है। भावार्थ-द्वादशांगवाणीके अनुसार जितने सिद्धांत हैं उनमें कालसहित पंचास्तिकायका निरूपण है और किसी जगह कुछ भी छूट नहीं की है, इसलिये इस पंचास्तिकायमें भी यह निर्णय है, इस कारण यह पंचास्तिकाय - प्रवचन भगवानके प्रमाणवचनोंमें सार है । समस्त पदार्थोंका दिखानेवाला जो यह ग्रन्थ समयसार पंचास्तिकाय है इसको जो कोई पुरुष शब्द अर्थसे भलीभांति जानेगा वह पुरुष षड्द्रव्योंमें उपादेयस्वरूप जो आत्मब्रह्म आत्मीय चैतन्यस्वभावसे निर्मल है चित्त जिसका ऐसा निश्चयसे अनादि अविद्यासे उत्पन्न रागद्वेषपरिणाम आत्मस्वरूपमें विकार उपजानेवाले हैं उनके स्वरूपको जानता है कि ये मेरे स्वरूप नहीं हैं । इसप्रकार जब इसको भेदविज्ञान होता है तब इसके परमविवेक ज्योति प्रगट होती है और कर्मबंधनको उपजानेवालो रागद्वेषपरिणति नष्ट हो जातो है, तब इसके आगामी बंधपद्धति भी नष्ट होती है। जैसे परमाणु बंधकी योग्यतासे रहित अपने जघन्य स्नेहभावको परिणमता आगामी बंधसे रहित होता है उसी प्रकार यह जीव रागभावके नष्ट होनेसे आगामी बंधका कर्ता नहीं होता, पूर्वबंध अपना रसविपाक देकर खिर जाता है तब यह चतुर्गति दुःखसे निवृत्त होकर मोक्षपदको पाता है । जैसे परद्रव्यरूप अग्निके संबंधसे जल तप्त होता है वही जल काल पाकर तप्त-विकारको छोड़कर स्वकीय शीतलभावको प्राप्त होता है. उसी प्रकार भगवचनको अंगीकार करके १ परमार्थतः. २ कार्यतया. ३ वर्तमानकाले. ४ स्यजति. ५ पूर्वोक्तः जीवः. ६ जीर्यमाणस्नेहो मोहः यस्य एवंभूतः सन् ७ यथा जघन्यस्नेहजघन्यसचिक्कणगुणेन अभिमुखसहितपरमाणुन बध्यते पूर्वबंधात्प्रच्यवते च जघन्यसचिक्कणत्वात् । स्नेहस्य जपन्यांशत्वादित्यर्थः. ८ अग्नितप्तोदकं दौस्थ्यं जाज्वल्यमानं तप्तभावं बनुकारि सदृशं जायते तत्सदृशस्य दुःखस्याभावं लभते । तद्यथा जलस्य शीतलस्वभावोऽस्ति परन्तु अग्निसंयोगात्तप्त विकारमावं प्राप्नोति । पुनः कर्मबंधवत् यदाऽग्निसंयोगो विघटते तदा शुद्धस्वभावं स्वस्य शीतलस्वभावं लभते एव । तथाहि-यदा कर्मबंधरहितः स धारमा भवति तदा दुःखस्य बभाव लभते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294