Book Title: Panchastikaya
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 240
________________ २०३ पश्चास्तिकायः । प्रसादोऽकालुष्यम् । तंत्र कादाचित्कविशिष्टकषायक्षयोपशमे सत्यज्ञानिनोऽपि भवति । कषायोदयानुवृत्तेरैसमग्रव्यावर्तितोपयोगस्यावांतरभूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपि भवतीति ॥ १३८ ॥ पापासवस्वरूपाख्यानमेतत् ; चरिया पमादबहुला कालुस्स लोलदा य विसयेसु । परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि ॥ १३९ ॥ चर्या प्रमादबहुला कालुष्यं लोलता च विषयेषु । परपरितापापवादः पापस्य चास्रवं करोति ॥ १३९ ॥ प्रमादबहुलच-परिणतिः, कालुप्यपरिणतिः, विषयलौल्यपरिणतिः, परपरितापपरिवैकल्यं कालुष्यमिति बुधा विदंति कथयंतीति । तद्यथा-तस्य कालुष्यस्य विपरीतमकालुष्यं भण्यते तच्चाकालुष्यं पुण्यास्रवकारणभूतं कदाचिदनंतानुबंधिकषायमंदोदये सत्यज्ञानिनो भवति, कदाचित्पुनर्निर्विकारस्वसंवित्त्यभावे सति दुनिवंचनार्थं ज्ञानिनोपि भवतीत्यभिप्रायः ॥ १३८ ।। एवं गाथाचतुष्टयेन पुण्यास्रवप्रकरणं गतं । अथ गाथाद्वयेन पापास्रवस्वरूपं निरूपयति;चरिया पमादबहुला निःप्रमादचिच्चमत्कारपरिणतेः प्रतिबंधिनी प्रमादबहुला चर्या परिणतिश्चारित्रपरिणतिः कालुस्सं अकलुषचैतन्यचमत्कारमात्राद्विपरीता कालुष्यपरिणतिः लोलदा य विसयेसु विषयातीतात्मसुखसंवित्तेः प्रतिकूला विषयलौल्यपरिणतिः परपरिदाव परपरितापरहितशुद्धात्मानुभूतेविलक्षणा परपरितापपरिणतिः अपवादो निरपवादस्वसंबित्तेविपरीता परापवादभाव ऐसा नाम [ वदन्ति ] कहते हैं। भावार्थ-जब क्रोध मान माया लोभका तीव्र उदय होता है तब चित्तको जो कुछ क्षोभ हो उसको कलुषभाव कहते हैं । उन ही कषायोंका जब मंद उदय होता है तब चित्तकी प्रसन्नता होती है, उसको विशुद्धभाव कहते हैं । सो वह विशुद्ध चित्तप्रसाद किसी कालमें विशेष कषायोंकी मंदता होनेपर अज्ञानी जीवके होता है । और जिस जीवके कषायका उदय सर्वथा निवृत्त नहीं हो, उपयोग-भूमिका सर्वथा निर्मल नहीं हो, अन्तर-भूमिकाके गुणस्थानों में प्रवर्तित है उस ज्ञानी जीव के भी किसी कालमें चित्तप्रसादरूप निर्मलभाव पाये जाते हैं। इस प्रकार ज्ञानी अज्ञानीके चित्तप्रसाद जानना चाहिये ॥ १३८ ॥ आगे पापास्रवका स्वरूप कहते हैं;-[ प्रमादबहुला चर्या ] बहुत प्रमादसहित क्रिया [ कालुष्यं ] चित्तकी मलीनता [च ] और [ विषयेषु ] इन्द्रियोंके विषयोंमें [लोलता ) प्रीतिपूर्वक चपलता [ च ] और [ परपरितापापवादः ] अन्य जीवोंको दुःख देना, अन्यकी निंदा करना, बुरा बोलना इत्यादि आचरणोंसे अशुभी जीव [पापस्य ] पापका १ प्रसन्नता निर्मलता. २ तत् अकालुष्यम्. ३ अपरिपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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