Book Title: Panchastikaya
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 242
________________ पश्चास्तिकायः । २०५ सयोगाऽप्रियवियोगवेदनामोक्षणनिदानाकाङ्क्षणरूपमातं । कषायफ्राशयत्वाद्धिसाऽसत्यास्तेयविषयसंरक्षणानंदरूपं रौद्रम् नैष्कम्यं तु शुभकर्मणश्चान्यत्र दुष्टतया प्रयुक्तं ज्ञानम् । सामान्येन दर्शनचारित्रमोहनीयोदयोपजनिताविवेकरूपों मोहः । एषः भावपापास्रवप्रपञ्चो द्रव्यपापासवप्रपञ्चप्रदो भवतीति ॥ १४० ॥ इति आस्रवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम् । अथ संवरपदार्थव्याख्यानम् । अनन्तरत्वात्पापस्यैव संवराख्यानमेतत् ; इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुठुमग्गम्मि । जावचावत्तेहिं पिहियं पावासवच्छिदं ॥ १४१ ॥ इन्द्रियकषायसंज्ञा निगृहीता यैः सुष्ठुमार्ग। यावत्तावत्तेषां पिहितं पापात्र छिद्र॥ १४१ ।। मोहश्च इति विभावपरिणामप्रपंचः पावप्पदो होदि पापप्रदायको भवति । एवं द्रव्यपापास्रवकारणभूतः पूर्वसत्रोदितभावपापास्रवस्य विस्तरो ज्ञातव्य इत्यभिप्रायः ॥ १४० ॥ किं च । पुण्यपापद्वयं पूर्व व्याख्यातं तेनैव पूर्यते पुण्यपापास्रवव्याख्यानं किमर्थमिति प्रश्ने परिहारमाह । जलप्रवेशद्वारेण जलमिव पुण्यपापद्वयमास्रवत्यागच्छत्यनेनेत्यास्रवः । अत्रागमनं मुख्यं तत्र मोहनीय कर्मके समस्त भाव [ पापप्रदाः ] पापरूप आस्रवके कारण [ भवन्ति ] होते हैं। भावार्थ-तीव्र मोहके उदयसे आहार भय मैथुन परिग्रह ये चार संज्ञायें होती हैं और तीव्र कषाय के उदयसे रंजित योगों की प्रवृत्तिरूप कृष्ण नील कापोत ये तीन लेश्यायें होती हैं । रागद्वेषके उत्कृष्ट उदयसे इन्द्रियाधीनता होती है । राग. द्वेषके अति विपाकसे इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, पीड़ाचिन्तवन और निदानबंध ये चार प्रकारके आर्तध्यान होते हैं । तीव्र कषायोंके उदयसे जब अतिशय क्रूरचित्त होता है तब हिंसानंदी, मृषानंदी, स्तेयानंदी, विषयसंरक्षणानंदीरूप चार प्रकारके रौद्रध्यान होते हैं। दुष्ट भावोंसे धर्मक्रियासे अतिरिक्त अन्यत्र उपयोगी होना सो खोटा ज्ञान है । मिथ्यादर्शन-ज्ञान- चारित्रके उदयसे अविवेकका होना मोह ( अज्ञानभाव ) है। इत्यादि परिणामोंका होना सो भाव पापास्रव कहलाता है । इसी पापपरिणतिका निमित्त पाकर द्रव्यपापास्रवका विस्तार होता है । यह आस्रव पदार्थका व्याख्यान पूर्ण हुआ ॥ १४० ॥ आगे संवर पदार्थका व्याख्यान किया जाता है;-[ यः ] जिन पुरुषोंने [ इन्द्रियकषायसंज्ञाः ] मनसहित पाँच इन्द्रिय, चार कषाय और चार संज्ञारूप पापपरिणति [ यावत् ] जिस समय [ सुष्टु मार्गे ] संवरमार्गमें [ निग्र १ हिंसानंद, असत्यानंदं , स्तेयानंद, विषयसंरक्षणानंदं । इति चतुर्दा रौद्रं भवति. २ प्रयोजनं विना. ३ शुभकर्म त्यक्त्वा अन्यत्र प्रयुक्त शावमित्यर्थः. ४ मासवानंतर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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