Book Title: Panchastikaya
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 210
________________ पचास्तिकायः । १७३ रिणतानां जीवेन सहान्योन्यंसंमूर्च्छनं पुद्गलानाञ्च बंधेः । अत्यंत शुद्धात्मोपलम्भो जीवस्य जीवेन सहात्यंतविश्लेषः कर्मपुद्गलानां च मोक्ष इति ॥ १०८ ॥ अथ जीवपदार्थानां व्याख्यानं प्रपञ्चनार्थम् । जीवस्वरूपोपदेशोऽयम् ;जीवा संसारत्था णिव्वादा वेदणपगा दुविदा raओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा ॥ १०९ ॥ जीवाः संसारस्था निर्वृत्ताः चेतनात्मका द्विविधाः । उपयोगलक्षणा अपि च देहा देहप्रवीचाराः ||१०९ || जीवाः हि द्विविधः । संसारस्था अशुद्धा निर्वृत्ताः शुद्धाय । ते खलूभयेऽपि चेतन - परिणामो भावबंधः भावबंध निमित्तेन तैलम्रक्षितशरीरे धूलिबंधवज्जीवकर्म प्रदेशानामन्योन्यसंश्लेषो द्रव्यबंधः, कर्मनिर्मूलनसमर्थः शुद्धात्मोपलब्धिरूपजीव परिणामो भावमोक्षः, भावमोक्ष निमित्तेन जीव कर्म प्रदेशानां निरवशेषः पृथग्भावो द्रव्यमोक्ष इति सूत्रार्थः ॥ १०८ ॥ एवं जीवाजीवादिनवपदार्थान नवाधिकारसूचनमुख्यत्वेन गाथासूत्रमेकं गतं । तदनंतरं पंचदशगाथापर्यंतं जीवपदार्थाधिकारः कथ्यते । तत्र पंचदशगाथासु मध्ये प्रथमतस्तावज्जीवपदार्थाधिकार सूचनमुख्यत्वेन “जीवा संसारत्था” इत्यादि गाथासूत्रमेकं अथ पृथ्वी कायादिस्थावरै केन्द्रियपंच मुख्यत्वेन " पुढवीय " इत्यादि पाठक्रमेण गाथाचतुष्टयं, अथ विकलेन्द्रियत्रयव्याख्यानमुख्यत्वेन " संबुक्क " इत्यादि पाठक्रमेण गाथा, तदनंतरं नारकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिचतुष्टयविशिष्टपंचेन्द्रियकथनरूपेण सुरण इत्यादि पाठक्रमेण गाथाचतुष्टयं, अथ भेदभावना मुख्यत्वेन हिताहित कर्तृत्ववर्गणाओं का आगमन होना आस्रव है । और जीवके मोह-राग-द्वेष परिणामोंको रोकने वाले भावोंका निमित्त पाकर योगोंके द्वारा पुद्गल वर्गणाओंके आगमनका निरोध होना संवर है । कर्मों की शक्ति घटानेको समर्थ, बहिरंग अंतरंगतपोंसे वर्द्धमान जीवके शुद्धोपयोगरूप परिणामों के प्रभावसे पूर्वोपार्जित कर्मोंका नीरस भाव होकर एकदेश क्षय हो जाना निर्जरा है । और जीवके मोह - राग-द्वेषरूप स्निग्ध परिणामों के निमित्तसे कर्म वर्गणारूप पुद्गलोंका जीवके प्रदेशोंसे परस्पर एकक्षेत्रावगाह करके संबंध होना बंध है । जीवके अत्यन्त शुद्धात्मभावको प्राप्ति हो तो उसका निमित्त पाकर जीवके सर्वथा प्रकार कर्मोंका छूट जाना मोक्ष है ।। १०८ ।। आगे जीव पदार्थका व्याख्यान किया जाता है, जिसमें जीवका स्वरूप नाम मात्रको दिखाया जाता ४ संसारस्याः, 66 ," १ एक देश सङ्क्षय : २ एकत्र संबधित्यं द्रव्यबंध: ३ प्रपञ्चयति' इति वा पाठ:. निर्वृत्ताः तत्र संसारस्था अशुद्धा ज्ञातव्यास्तु पुनः निर्वृत्ताः शुद्धा ज्ञातव्या इत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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