Book Title: Nirayavalika Sutram
Author(s): Ghasilalji Maharaj, Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहिंसा संयम तप आदि; उनको दुःख रूप समझकर उन्हें छोड बैठती है, धर्म अधर्म आत्मा अनात्माके विवेकसे वंचित रहती है, उन्मार्गगामी बनती है, सुमार्गको परित्याग करती है, फिर उसी दुःख परंपराकी जालमें फसती है। इतने में प्रमाद रूपी पिशाच आकर झूमता है और आत्माकी ऐसी छिन्न भिन्न दशा करता है कि आत्मा जड स्वरूप बनकर जड वस्तुओंमें ही आनन्द मानती है। ___इधर अशुभयोग रूप भूत आत्मामें प्रवेश करता है; तब फिर क्या ? कल्पनासे भी बाहर परिस्थिति बन जाती है। अशुभ योगों की अशुभ प्रवृत्तिया अशुभ कार्योकी ओर आत्माको घसीटती हैं। फिर आत्मा परतंत्र बनकर ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मोंको मन्द तीव्र आदि रसमें प्रवृत्त हो बांधती है और एकसौ अडतालीस प्रकृतियों की फासमें फसकर नाना प्रकार का दुष्कृत्य करके नरक निगोद आदि अनन्त दुःखरूपी खड्डेमें गिर जाती है। इस प्रकार अनन्त काल तक आत्माके लिये मनुष्यभव पाना तो दूर रहा, किन्तु निगोदकी अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रियसे वादर एकेन्द्रियका भी भव वह नहीं पा सकती। इस तरह चतुरगतीमें भटकती भटकती भव भ्रमण करती २ आत्मा कदाचित् मनुष्य भवमें आ भी गयी तो मिथ्यात्व अविरति कषाय प्रमाद और अशुभ योगों की प्रवृत्तियां उसको घेर लेती हैं, जिससे वह फिर भवाटवीमें पड़ जाती है और उसो विकल दशाको प्राप्त कर जन्म मरण आदि पाती रहती है। इस प्रकारको अवस्था सकल संसारी जीवों की भगवानने अपने केवल. ज्ञानरूपी प्रकाशसे अवलोकन करके परम करुणा करते हुए शारीरिक मानसिक दुःखोंको मिटानेवाली जन्म मरण आदिको उच्छेद करनेवाली जिनवाणीको द्वादश अंग द्वारा प्रवचन रूपसे प्रकाशित की है। वह वाणी १ चरणकरणानुयोग २ धर्मकथानुयोग ३ गणितानुयोग और ४ द्रव्यानुयोग रूपमें विभक्त है। निरयावलिका आदि पाँच उपाङ्ग भगवानकी धर्मकथानुयोग वाणीमें अन्तर्हित हैं। इन पांचों उपाङ्गोंमें (१) निरयावलिका अन्तकृतका उपाङ्ग है, और (२) कल्पावतंसिका अनुत्तरोपपातिकका, (३) पुष्पिता प्रश्नव्याकरण सूत्रका, (४) पुष्पचूलिका विपाकसूत्रका, एवं वृष्णिदशा दृष्टिवादाङ्गका उपाङ्ग है। For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 479