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छ वर्ष पहले सुप्रसिद्ध आचार्य जिनमद्रसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद से अलकृत कर दिया था पर आपने इस स्तोत्र के ३६ वें पद्य में 'कीर्तिराज साधु' ही नाम दिया है । 'उपाध्याय' पद का उल्लेख नही किया, यह आपकी निरभिमानता व निस्पृहता सूचक है । इसके अन्तिम पद्य में 'इन्द्रनगरी' के अजित जिन कल्याण करें, ऐसा उल्लेख है, यह 'इन्द्रनगरी' कौनसी थी ? प्रमाणाभात्र से निश्चित रूप से नही कहा जा सकता ।
म० १४६० मे आप योगनीपुर-दिल्ली मे थे तब आपने यजुर्वेद की प्रति प्राप्त की थी, वह १५६ पत्रो की प्रति अभी स्वर्गीय आगमप्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी के संग्रह मे है । अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार हैं - सम्वत् १४९० वर्षे श्री योगिनि पुरे श्री कीर्ति राजोपाध्यायं ॥ जु (य) जुर्वेद पुस्तक
प्राप्त
इस प्रति मे आप केवल जैन शास्त्रो के ही विद्वान नहीं थे, पर वेदो के भी अध्ययता थे, सिद्ध होता है । युजुर्वेद की यह ५४१ वर्ष पहले की लिखी हुयी प्रति अवश्य ही महत्वपूर्ण | आपके और आपके शिष्यो के लिखवाई हुयी अनेको हस्तलिखित प्रतियाँ हमारे देखने मे आयी हैं, जिनसे आप केवल साहित्यकार ही नही, पर साहित्य के सग्रह एवम् मरक्षण मे भी आपका वहुत ही महत्वपूर्ण योग रहा सिद्ध होता है ।
प्राकृत सस्कृत और तत्कालीन प्राचीन राजस्थानी लोकभाषा मे आपकी कई रचनाएँ प्राप्त है, जिनमें से नेमिनाथ महाकाव्य स० १४७५ की रचना है और रोहिणी स्तवन् सम्वत् १४६७ की । अजित स्तुति को छोड़कर अन्य रचनाओ मे रचना काल नही दिया गया ।
अपने साहित्यिक शोध के प्रारम्भ काल मे ही हमे आप ही के शि० शिवकु जर की एक महत्वपूर्ण स्वाध्याय मग्रह पुस्तिका प्राप्त हुयी थी, जिसमे आपके रचित निम्नोक्त रचनाऐं लिखी हुयी हैं
यह प्रति स० १४९३ की लिखी हुयी है, अत ये सभी रचन ऐं इससे पहले की ही रचित मिद्ध होती है ।
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