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यावदनशन प्रपात्य
एको निज सेवक केनचिद् कारणेन मृतो दृष्ट, तत् स्वरूप दृष्ट्वा तस्य चित्ते वैराग्य समुत्पन्ना सर्वममारस्वरूपमनित्य ज्ञात्वा म । श्रीजिनवर्द्ध नसूरि पार्श्वे चारित्र ललौ, कीतिराज नाम प्रदत, तत शास्त्र विशारदो जात महत्तप कृत्वा भव्य जीवान् प्रति बोधयामास तत म । श्री जिन भद्र सूरय स्त पदस्थ योग्य ज्ञात्वा दुग स । १४६७ मि । मा । सु० १० ति । सूरि पदवी च दत्वा श्री कीर्तिरत्नसूरि नामाना चक्र स्तेभ्य शाखेपा निर्गता ततो महेवा गरे । सं १५२५ मि । वं । व ५ ति । २५ दिन स्वर्गे गत । तेषा पादुके स । १८७६ मि । आ । व १० ज । यु । भ० श्री जिनह सूरिभि प्रतिष्ठित तदन्वये महो- श्री माणिक्यमूत्ति गणिस्तच्छिष्य प० भावहर्षगणि तच्छप्य उ । श्री अमरविमल गणिस्त । उ । श्री अमृतसुन्दर गणिस्त । वा महिमहेम स्त । प०कान्तिरत्न गणिना कारिते च । खरतर गच्छ मे आपकी शिष्य परम्परा कीर्तिरत्नसूरि शाखा नाम से प्रसिद्ध हुई, जिममे साधु एव यति परम्परा मे पचासो विद्वान हुए हैं, जिन्होने अनेक ग्रन्थो की रचना की, प्रतिष्ठाए कराई | वीसवी शताब्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान् जैनाचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी भी आप ही की परम्परा मे हुए जिन्होने कई ग्रन्य एव स्तवनादि रचे । उनके पचासो शिष्यशिष्याओ ने शासन की बडी सेवाएँ की । श्री जयसागरमूरि, उ. सुखसागर जी मुनि कान्तिसागरजी नामाङ्कित विद्वान थे । अब आपकी परम्परा मे केवल वयोवृद्ध मुनि मङ्गलसागर जी एव कुछ साध्वियां विद्यमान है ।
श्री कीर्तिरत्न नूरि शखवाल थे, इनके कुटुम्ब वाले बडे धनाढ्य और नामक व्यक्ति हुए हैं जिन्होने नाकोडा, जेसलमेर, शङ्खवाली, जोधपुर और बीकानेर आदि स्थानो में विशाल जिनालयो का निर्माण कराया । सघ निकाले, दानशालाएँ खोली । कितने ही स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र आदि शास्त्र लिखवाए जिनकी प्रशस्तियो तथा अन्यान्य साधनो में विस्तृत इतिहास छिपा पडा है जिन पर प्रकाश डालने के लिए शोध आवश्यक है ।
रचनाएँ -
आचार्य कीर्तिरत्नसूरिजी बहुत अच्छे विद्वान् थे, इनकी सबसे पहली रचना जैसलमेर के पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रशस्ति है, जो २७ श्लोको मे रची