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गयी है। उसमे अने को महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य पाये जाते है। 'लक्ष्मण विहार' नामक इस जिनालय का निर्माण कीर्तिरलसूरिजी के दीक्षा गुरु
श्री जिनवधनसूरिजी के उपदेश से स० १४७३ मे हुआ था। यह प्रशस्ति चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर, जो जैसलमेर का प्राचीन और प्रधान मन्दिर है, इस के दक्षिण द्वार के बांदी तरफ दीवार पर काले पत्यर पर खुदी हुई हैं। २२ पक्तियों में यह मत्ताईस श्लोको वाली प्रशस्ति बड़ी सुन्दर व महत्व की है। प्रशस्ति के शिला ने ब की लम्बाई दो फुट साढे छै इञ्च और चौडाई एक फुट साढ़े तीन इञ्च है । इसके अक्षर बडे सुन्दर और आधा इञ्च से भी कुछ बडे खुदे हुए है। यह प्रशान्त और उमका ब्लॉक स्वर्गीय पूर्णचन्द जी नाहर के जैन-लेख-सग्रह के तीसरे खण्ड के प्रारम्भ मे ही छपा हुआ है। इस प्रशस्ति का सशोधन उस समय के प्रसिद्ध विद्वान वा० जयसागर गणि ने किया था, और धन्ना नामक सूत्रधार ने इसे उत्कीर्ण किया था। प्रशस्ति का अन्तिम श्लोक इस प्रकार है
"प्रशस्ति विहिता चेयं कीति राजेन साधुना।
धन्नाकेन समुत्कोर्णा, सूत्रधारेण सा मुदा ॥२७॥
साधु कीतिराज, जो कीतिरत्नमूरि जी का दीक्षा नाम था, वही नाम इस प्रशस्ति मे उल्लिखित है । स० १४७० में इनकी विद्वता से प्रभावित होकर - आचार्य श्री जिनवर्धनसूरि जी ने इन्हे वाचक पद से विभूपित कर दिया था पर स० १४७३ की प्रगम्ति मे वाचक पद नही लिखा है। तब से लेकर आए ५५ वर्ष तक साहित्य रचना करते रहे। पर आपकी अन्य सव रचनाओ में रचना समय का उल्लेख नहीं है, इसलिए उनका कमिक रचनाकाल नही बतलाय जा सकता, रचनाकाल के उल्लेख वाली दूसरी रचना अजितनाथ जपमाल चित्र स्तोत्र म० १४८६ मे रचित ३७ श्लोको का काव्य है। इसकी उर्स सम्वत् की लिखी हुयी एक पत्र की सुन्दर प्रति हमारे सग्रह मे है । उसकी नकल यहां प्रकाशित की जा रही है । यह एक चित्र-काव्य है । अच्छा होता इसे निक काव्य (जपमाना) के रूप में प्रकाशित किया जाता। इस स्तोत्र की रचना से