Book Title: Nandanvan Kalpataru 2016 11 SrNo 37
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 13
________________ सुकृतविटपी मेऽद्य स्वामिन् ! प्रभूतफलोऽभवत् __दुरितततयो दूरं दूरं ममाऽद्य पलायिताः । हृदि निरवधिहर्षाम्भोधिः समुच्छलितोऽद्य मे विमलविमलं यत्ते जातं मुखाम्बुजदर्शनम् ॥६॥ तव निरुपमं रूपं दृष्ट्वाऽक्षिणी मम नृत्यत स्तव सुचरितं श्रावं श्रावं मनो मम हृष्यति । तव गुणगणं गायं गायं मुदं रसनैति मे तव सुवचनं पायं पायं कृतार्थमभूज्जनुः ॥७॥ गणधरमणे ! त्वत्पादाब्जे विनम्य निवेदये नहि नहि कदाऽप्यस्मत्स्वान्तात् क्षणं वियुतो भव । वितरति मतिं त्वत्सान्निध्यं व्यपोहति दुर्मति जनयति मनः सर्वाभीष्टं तनोति निरीहताम् ॥८॥ ललितहरिणी-छन्दोयोगादिदं हि गुणाष्टकं विरचितमिति स्फूर्जद्भक्त्या वरेण्यगणेशितुः । गुरुवरपदाम्भोजद्वन्द्वार्चनाप्तधिया मया प्रथमगणभृत्-मन्त्रध्यात्रा सुवर्णसुधांशुना ॥९॥

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