Book Title: Nandanvan Kalpataru 2003 00 SrNo 10
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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गतिस्त्रोतस्विन्यो विरसविपदम्भांसि ददते,
स्मरो दावाग्निः प्रज्वलितविषयः शंशमति नो । शिला मार्गध्वंसा मलिनमतयो यत्र परितो,
भवाद्रौ भव्यानामरुचिरुचिता तत्र नितराम्
કો
॥६॥
महामोहोन्मादात् सकलमकलं वेत्ति सकलं,
भवोद्भूतं दुःखं कलयति विमूढः सुखतया । न संसारस्याऽस्य प्रभवति जिहासा जिगमिषा,
शिवस्यैतत् सम्यक् सकृदपि विमृश्यं मतिमता विषः किं संसार: किमुत परिवारो विषभूतां,
महानागः किं वा किमपि परभागोडसुकृतिनाम् । किमु ज्वालाजालः किमतिविकरालः पितृपति
भवं दर्श दर्श विदधति विकल्पानिति विदः
॥७॥
जना जोषं जोषं दुरितभरिता दुःखमुदिताः, __ पदार्थान् सेवन्ते त्वरितसरिदावेगसदृशः । तथा बोधं बोधं प्रमपदमाप्तुं कृतधियां, मनोऽस्मात् संसारादनुपधि विरक्तं विरमति
॥८॥
Ka
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