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मेरी जीवनगाथा
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त्यागी ही था, जो किसीसे कुछ कहता। अतः दो दिन यहाँ निवास कर जबलपुरकी सड़क द्वारा जबलपुरको प्रयाण कर दिया। मार्गमें अनेक जैन मन्दिरोंके दर्शन किये। चार दिनमें जबलपुर पहुँच गया। यहाँके जैन मन्दिरोंकी अवर्णनीय शोभा देखकर जो प्रमोद हुआ उसे कहने में असमर्थ हूँ। यहाँसे रामटेकके लिए चल दिया। ६ दिनमें सिवनी पहुँचा। वहाँ भी मन्दिरोंके दर्शन किये। दर्शन करनेसे मार्गका श्रम एकदम चला गया। २ दिन बाद श्री रामटेकके लिए चल दिया। कई दिवसोंके बाद रामटेक क्षेत्रपर पहुँच गया।
यहाँके मन्दिरोंकी शोभा अवर्णनीय है। यहाँ पर श्री शान्तिनाथ स्वामीके दर्शन कर बहुत आनन्द हुआ। यह स्थान अति रमणीय है। ग्रामसे क्षेत्र ३ फांग होगा। निर्जन स्थान है। यहाँसे चारों तरफ बस्ती नहीं। २ मील पर एक पर्वत है जहाँ श्री रामचन्द्रजी महाराजका मंदिर है। वहाँ पर मैं नहीं गया। जैनमन्दिरोंके पास जो धर्मशाला थी उसमें निवास कर लिया। क्षेत्रपर पुजारी, माली, जमादार, मुनीम आदि कर्मचारी थे। मन्दिरोंकी स्वच्छता पर कर्मचारीगणोंका पूर्ण ध्यान था। ये सब साधन यहाँ पर अच्छे हैं, कोष भी क्षेत्रका अच्छा है, धर्मशाला आदि का प्रबन्ध उत्तम है। परन्तु जिससे यात्रियोंको आत्मलाभ हो उसका साधन कुछ नहीं। उस समय मेरे मनमें जो आया उसे कुछ विस्तारके साथ आज इस प्रकार कह सकते हैं
ऐसे क्षेत्रोंपर तो आवश्यकता एक विद्वान्की थी, जो प्रतिदिन शास्त्र-प्रवचन करता और लोगोंको मौलिक जैन सिद्धांतका अवबोध कराता। जो जनता यहाँ पर निवास करती है उसे यह बोध हो जाता कि जैनधर्म इसे कहते हैं। हम लोग मेलेके अवसर पर हजारों रुपये व्यय कर देते हैं, परन्तु लोगोंको यह पता नहीं चलता कि मेला करनेका उद्देश्य क्या है ? समयकी बलवत्ता है जो हम लोग बाह्य कार्योंमें द्रव्यका व्ययकर ही अपनेको कृतार्थ मान लेते हैं। मन्दिरके चाँदीके किवाड़ोंकी जोड़ी, चाँदीकी चौकी, चाँदीका रथ, सुवर्णके चमर, चाँदीकी पालकी आदि बनवानेमें ही व्यय करना पुण्य समझते हैं। जब इन चाँदीके सामानको अन्य लोग देखते हैं तब यही अनुमान करते हैं कि जैनी लोग बड़े धनाढ्य हैं, किन्तु यह नहीं समझते कि जिस धर्मका यह पालन करनेवाले हैं उस धर्मका मर्म क्या है ? यदि उनको यह लोग समझ जावें तो अनयास ही जैनधर्मसे प्रेम करने लगें। श्री अमृतचन्द्रसूरिने तो प्रभावनाका यह लक्षण लिखा है कि
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