Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 451
________________ मेरी जीवनगाथा 418 मन्दिर बनानेमें लगा देवेंगे, आप निश्चिन्त होकर शयन करिये। हम लोग मन्दिर बनाकरही रहेंगे तथा संगमरमर वेदिका मन्दिरमें लगायी जावेगी। श्रीलालजीने कहा कि हमारे पास जो कुछ सम्पत्ति है वह प्रायः इसी काममें आवेगी। अभी कुछ नहीं कहते, समय पाकर सब कार्य हो जाते हैं। अधीर होनेकी आवश्यकता नहीं। कार्यसिद्धि कारणकूटके आधीन है। अधीरता तो सामग्रीमें बाधक है, अतः हम लोग आपको विश्वास देते हैं कि भाद्रमास तक नियमसे मंदिर बन जावेगा और यदि दिल्लीसे आपका प्रस्थान इस प्रान्तमें हुआ तो आप स्वयं दर्शन करेंगे। विशेष क्या कहें ? आपसे हमारा प्रेम हो गया है। अर्थात् न जाने आपके उदासीन भावोंके प्रभावसे हम आपसे उदास न होकर इसके विरुद्ध आपको अपना स्नेही मानने लगे हैं। इसका अर्थ यह है कि उदासीनता वस्तु संसार-बंधनको ढीला करनेवाली है और स्नेह संसारका जनक है, यह ठीक है, परन्तु आपमें जो हमारा स्नेह है उसका यही तो अर्थ है कि जो वस्तु आपको इष्ट है वही हमें प्रिय है। तब जो उदासीनता आपको इष्ट है वही हमको भी इष्ट है, अतः हम भी प्रायः उसीके उपासक हुए। मतलब यह है कि आपको यहाँ मंदिर निर्माण इष्ट है। वह हमें भी सुतरां इष्ट है, अतः आप निश्चिन्त होकर शयन करिये, विशेष क्या कहें ? पश्चात् वे लोग अपने-अपने घर चले गये और मैं भी सो गया। रात्रिको स्वप्नमें क्या देखता हूँ कि संसारमें जो भी पदार्थ है वह चाहे चिदात्मक हो, चाहे अचिदात्मक; उसकी सत्ता चिदात्मक द्रव्य और चिदात्मक गुण तथा अचिदात्मक द्रव्य और अचिदात्मक गुणमें ही रहेगा। यदि चिदात्मक पदार्थ है तो चिदात्मक द्रव्य और चिदात्मक गुणमें रहेगी तथा अचिदात्मक पदार्थ है तो अचिदात्मक द्रव्य और अचिदात्मक गुणमें ही रहेगी। हम व्यर्थ ही कर्ता बनते हैं। अमुकको यह कर दिया, अमुकको वह कर दिया, यह सब हमारी मोहकी कल्पना है। जब तक हमारी ये कल्पनाएँ हैं तभी तक संसार है और जब तक संसार है तभी तक नाना यातनाओं के पात्र हैं। जिन्हें इस संसारकी यातनाओंसे अपनी रक्षा करना है वे इन मोहजन्य कल्पनाओंको त्यागें। न कोई किसीका कल्याण करनेवाला है, और न कोई किसीका अकल्याण करनेवाला है। कल्याण और अकल्याणका कर्ता जीव स्वयं हैं। जहाँ आत्मा इन अनात्मीय पदार्थों से अपने अस्तित्वको भिन्न जान लेता है वहाँ उनके संग्रह करनेका अनुराग स्वयमेव त्याग देता है और उनके प्रतिपक्षी पदार्थों में द्वेष भी इसका सहज ही छूट जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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