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बरुआसागरमें विविध समारोह
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अथवा दोनों से परे हो। अस्तु, जो हो, उनकी वे जानें।
इधर-उधर भ्रमण कर पुनः बरुआसागर आ गया। बरुआसागर विद्यालय के विषय में एक बात विशेष लिखने की रह गई। वह यह कि स्वर्गीय मूलचन्द्रजी के सुपुत्र स्वर्गीय श्रेयान्सकुमार, जो कि बहुत ही होनहार युवक थे, जब सागर गये, तब मुझसे बोले कि आप बरुआसागर आवें और जिस दिन आप बरुआगसार से परे दुमदुमा आ जावेंगे उसी दिन मैं दश सहस्र रुपया बरुआसागर विद्यालय को दान कर दूंगा। परन्तु आप उसी वर्ष परलोक सिधार गये। आपकी धर्मपत्नी हैं, जो बड़ी ही सज्जन हैं। होनहार बालक भी
हैं।
यहाँ पर पाठशाला के जो मुख्याध्यापक पं. मनोहरलालजी हैं वे तो उसके मानों प्राण ही हैं। आप निरन्तर उसकी चिंता रखते हैं। मामूली वेतन लेकर भी आपको संतोष है। आपने अथक परिश्रम कर झाँसीवाले नन्हूमल्लजी जैन अग्रवाल लोइया से पाठशाला के लिये पचास सहस्र का मकान दिला कर उसे अमर बना दिया। लोइयाजी ने इसके सिवाय छात्रावास का एक कमरा भी बनवा दिया है और मैने पाठशाला के लिये जो एक घड़ी दी थी वह भी इन्होंने ग्यारह सौ रुपये में ली थी। आपका स्वभाव अति सरस और मधुर है। आप परम दयालु हैं, संसार से उदास रहते हैं और निरन्तर धर्मकार्य में अपना समय लगाते हैं।
बाबू रामस्वरूप जी के विषय में क्या लिखू ? वे तो विद्यालय के जीवन ही हैं। वर्तमान में उसका जो रूप है वह आपके सत्प्रयत्न और स्वार्थत्याग का ही फल है। आप निरन्तर स्वाध्याय करते हैं, तत्त्व को समझते भी हैं, शास्त्रके बाद आध्यात्मिक भजन बड़ी ही तन्मयता से कहते हैं। आपकी धर्मपत्नी ज्वालादेवी हैं। जो बहुत चतुर तथा धार्मिक स्वभाव की हैं, निरन्तर स्वाध्याय करती हैं, स्वभाव की कोमल हैं। आपका एक सुपुत्र नेमिचन्द्र एम.ए. है, जो स्वभावका सरल, मृदुभाषी और निष्कपट है, विद्याव्यसनी भी है। परन्तु व्यापारकी ओर उसका लक्ष्य नहीं। इलाहाबाद रहता है। जब तक मैं ईसरी रहा तब तक प्रतिमास आपके यहाँसे एक कुप्पी अठपहरा घी पहुँचता रहा। श्री ज्वाला देवी ने दो हजार एक विद्यालय को दिये तथा एक कमरा भी बनवा दिया। एक हजार एक विद्वत्परिषद्कों भी दिये। इसके सिवाय धीरे-धीरे फाल्गुन शुक्ल वीर नि. २४७४ का आष्टाह्निका पर्व आ गया। उस समय आपने बड़ी धूमधामसे
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