________________
मेरी जीवनगाथा
414
तीर्थप्रभुमार्तण्डका उदय पाकर भव्याब्ज विकसित हो जाते हैं। भव्यकमलों में विकसित होने की शक्ति है। उसका उपादान कारण वे स्वयं है, परन्तु उस विकास में निमित्त श्री वीर प्रभु हए । यही कारण है कि आज भी हम लोग उन १००८ वीर प्रभुका स्मरण करते हैं। परन्तु केवल स्मरण मात्र से हम संसार की यातनाओं से मुक्त नहीं हो सकते। उनके दिखलाये हुए मार्गका अवलंबन करने से ही हम उनके अनुयायी हो सकते हैं। लाखों रुपये का व्यय करने पर ! भी हम श्री वीर प्रभुका उतना प्रभाव दिखाने में समर्थ नही हो सकते जितना कि उनके द्वारा प्रतिपाद्य अहिंसा कों पालन करने से दिखा सकते हैं। यदि हम सच्चे अन्तरंगसे श्रीवीर के उपासक हैं तो हमें आज से यह नियम हृदयंगम करना चाहिये कि हम अपने आत्मा को हिंसा दोष से लिप्त न होने देवगे तथा आज के दिन से किसी भी प्राणी के प्रति मन, वचन, काय से दुःख न देने का प्रयत्न करेंगे एवं कम से कम एक दिन की आय परोपकार में लगावेंगे। साथ ही इस दिन मन, वचन, कायसे सब पापों का त्याग करेंगे और उस त्याग में ब्रह्मचर्य व्रत की पूर्ण रक्षा करेंगे। इस दिन का ऐसा निर्मल आचार होगा कि जिसे देख अन्य के परिणाम दयापरक हो जावेंगे। अहिंसा की परिभाषा करने में ही चतुरता दिखलाने की चेष्टा न होगी। किन्तु उसके पालन में अनुराग होगा। यदि हम अन्तरंग से अहिंसा के उपासक हो गए तो अनायास ही हमारी यातनाएँ पलायमान हो जावेंगी। हम चह चेष्टा करते हैं कि संसार में अहिंसा धर्म का प्रचार हो, चाहे हममें उसकी गन्ध भी न हो। सर्वोत्तम मार्ग तो यह है कि हम अपनी प्रवृत्ति को निर्मल बनाने का प्रयत्न करें। श्री महावीर स्वामी के जीवन चरित से यही शिक्षा लेनी चाहिए कि हम पंचेन्द्रियों के विषयों से अपने को सुरक्षित रखें । आत्मा में अनन्त शक्ति है। प्रत्येक आत्मा में वह है, परन्तु हम तो इतने कायर हो गये हैं कि अपनी परिणति को दुर्बल समझ ऊपर चढने की कोशिश ही नहीं करते। एक स्वप्न
सोनागिरि आज के दिन पर्वत पर शयन किया। रात्रि को सुन्दर स्वप्न आया, जिसमें सर सेठ हुकुमचन्द्र जी से बातचीत हुई। आपको धोती दुपट्टा लेते हुए देखा । आप पूजन के लिए जा रहे थे। मैने आपसे कहा कि 'आप तो स्वाध्याय के महान् प्रेमी हैं पर इस समय पूजन को जा रहे हैं, स्वाध्याय कब होगा? मेरी इच्छा थी कि आपके समागम में पण्डितों द्वारा शास्त्रका मार्मिक तत्त्व विवेचन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org