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पं. गोपालदासजी वरैयाके सम्पर्कमें
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जो कि दि. जैन महाविद्यालय मथुरामें पढ़ानेके लिये नियुक्त हुए हैं। अच्छा, बताओ शाक क्या है ?' मैंने कहा-'आलू और बैंगनका ।' सुनते ही पण्डितजी साहब अत्यन्त कुपित हुए। क्रोधसे झल्लाते हुए बोले-'अरे मूर्ख नादान ! आज चतुर्दशीके दिन यह क्या अनर्थ किया ?' मैंने धीमे स्वरमें कहा–'महाराज ! मैं तो छात्र हूँ ? मैं अपने खानेको तो नहीं लाया, कौन-सा अनर्थ इसमें हो गया ? मैं तो आपकी दयाका ही पात्र हूँ।
यद्यपि मैंने उनके साथ बहुत ही विनय और शिष्टाचारका व्यवहार किया था तो भी अपराधी बनाया गया। उन्होंने कहा कि 'ऐसे उद्दण्ड छात्रोंको विद्यालयमें प्रवेश करना उत्तर कालमें महान् अनर्थ-परम्पराका कारण होगा।' मैंने कुछ कहना चाहा पर वे बीच हीमें रोकते हुए बोले-'अच्छा, अब तुम मत बोलो। पं. गोपालदासजीसे तुम्हारे अपराध का दण्ड दिलाकर तुम्हें मार्गपर लावेंगे। यदि मार्गपर न लाये तो पृथक् करा देंगे।'
मैं उनकी मुद्रा देखकर बहुत खिन्न हुआ, परन्तु हृदयने यह साक्षी दी कि 'भय मत करो, तुमने कोई अपराध नहीं किया'-तुमने तो नहीं खाया, गुरुजीकी आज्ञासे लाये हो। श्रीमान् पं. गोपालदासजी महान् विवेकी और दयालु जीव हैं। वह तुम्हें पृथक न करेंगे। ऐसे २ अपराधोंपर यदि छात्र पृथक किये जाने लगे तो विद्यालयमें पढ़ेगा ही कौन ?' इत्यादि ऊहापोह चित्तमें होता रहा, पर अन्तमें सब शान्त हो गया।
मैं श्रीमान् वरैयाजीसे न्यायदीपिका पढ़ा करता था। एक दिन मैंने कह ही दिया कि 'महाराज ! मेरेसे दो अपराध बन गये हैं-एक तो यह है कि मैं दोपहरीके समय जूता पहिने धर्मशास्त्रकी पुस्तक लेकर पण्डितजी के यहाँ पढ़नेके लिए जाता हूँ और दूसरा यह कि चतुर्दशीके दिन श्रीमान् पं. ठाकुरप्रसादजीके लिए आलू तथा बैंगनका शाक लाया। क्या इन अपराधोंके कारण आप मुझे खुलनेवाले विद्यालयमें न रखेंगे?' पण्डितजी सुनकर हँस गये
और मधुर शब्दोंमें कहने लगे कि 'क्या श्री पं. नन्दरामजीने तुम्हें शाक लाते हुए देख लिया है ?' मैंने कहा-'हाँ महाराज ! बात तो यही है।' 'तूने तो नहीं खाया'-उन्होंने पूछा। 'नहीं महाराज ! मैंने नहीं खाया और न मैं कभी खाता हूँ। मैंने स्पष्ट शब्दोंमें उत्तर दिया। पण्डितजीने प्रेम प्रदर्शित करते हुए कहा कि 'सन्तोष करो, चिन्ता छोड़ो, जो पाठ दिया जावे उसे याद करो, तुम्हारे वह सब अपराध माफ किये जाते हैं। आगामी यदि अष्टमी या चतुर्दशीका दिन हो,
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