Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 383
________________ मेरी जीवनगाथा 350 पंखा करते थे, पर शान्ति नहीं मिलती थी। श्रीबाबाजी महाराज कहते थे कि 'यह सब कर्मविपाक है धैर्य धारण करो, व्यग्रताका अंश भी मनमें न लाओ, इसे तो ऋणकी तरह अदा करो, मनुष्य-जन्ममें ही संयमकी योग्यता होती है उसका घात मत करो, संयम कर्मकी निर्जरामें कारण है, यह जो तुम्हारा उपचार है, इस पदके योग्य नहीं, असंयमी मनुष्योंके योग्य है।' मैने कहा-'महाराज ! मैं क्या करूँ ? मेरे वशकी बात जो थी सो मैंने की। मैं औषध तक नहीं खाता और न किसीसे यह कहता हूँ कि ये उपचार किये जावें। किन्तु उपचार होने पर बाह्य वेदनामें कुछ शमन होता है, अतः इनमें मेरी अरुचि भी नहीं। मैं आपकी बात मानता हूँ। आखिर, आप भी तो चाहते हैं कि इसका रोग शीघ्र मिट जावे, यह क्या मोह नहीं है ? दिनमें कई बार मेरी नवज देखते हैं तथा कुछ विषाद भी करते हैं।' बाबाजी ने कहा कि 'इसका यह अर्थ नहीं कि हमें विषाद हो। परन्तु हमारा कर्तव्य है कि तुम्हें शान्ति पहुँचावें, अतः हमारा तीन बार आना योग्य है, अन्यथा तुम्हें यह आकुलता हो जावेगी कि जब बाबाजी ही हमारी सुध नहीं लेते तब अन्य कौन लेगा? इसी दृष्टिसे हम तुम्हारी वैयावृत्य करते हैं। साथ ही यह चरणानुयोगका मार्ग भी है कि महापुरुषोंकी वैयावृत्य करना चाहिये। वैयावृत्य तो अन्तरंगतप है, कर्म निर्जराका, खासकारण है। इसका यह अर्थ मत लो कि मेरा तेरेमें मोह है। परन्तु वह भी नहीं। अभी तो हम पञ्चमगुणस्थानवर्ती ही हैं, क्या साधर्मी जीवसे मोह नहीं करना चाहिये ? विशेष क्या कहें ? तुम शान्तभावसे सहन करो; रोग शमन हो जावेगा, आतुर मत होओ।' मैने कहा-महाराज ! मुझे मलेरिया बहुत सताता है, अतः मेरा विचार है कि ईसरी छोड़कर हजारीबाग चला जाऊँ।' उन्होंने कहा-अच्छा जाओं, अन्तमें यहीं आना होगा।' जानेकी शक्ति न थी, अतः डोली कर हजारीबाग चला गया। वहाँ पर एकबाग में सत्तर रुपया भाड़ा देकर ठहर गया। ग्रामवालोंने अच्छी वैयावृत्य की। यहाँ पानी अमृतोपम था। डेढ़ मास रहा, फिर ईसरी आ गया। श्री बाबा भागीरथजीका समाधिमरण वर्षों के बाद बाबाजीका शरीर रुग्ण हो गया। फिर भी आप अपने धर्म-कार्यमें कभी शिथिल नहीं हुए। औषधि सेवन नहीं किया। कृष्णाबाईने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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