Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 439
________________ मेरी जीवनगाथा 406 दो सौ घर श्रावकोंके हैं। प्रायः सब सम्पन्न हैं। ये लोग यदि चाहें तो पपौरा विद्यालय की उन्नति हो सकती है, परन्तु इनकी इस ओर विशेष दृष्टि नहीं । यहाँ से चलकर बानपुर गया। यहाँ पर गाँव के बाहर प्राचीन मन्दिर है। एक सहस्रकूट चैत्यालय भी है, परन्तु गाँववालों का उस ओर ध्यान नहीं। गाँव में बहुत बड़े-बड़े मन्दिर हैं। उस ओर भी विशेष लक्ष्य नहीं । यहाँ से चलकर मबई आया । यहाँ पर श्रीनाथूराम जी बहुत ही सुयोग्य और सम्पन्न व्यक्ति हैं। यहाँ का सराफा घराना भी प्रसिद्ध है। इस घराने में कल्याणचन्द्रजी १ बहुत ही योग्य और उदार महाशय हो गये हैं। इनका राज्य में अच्छा आदर था। नाथूरामजीने अहार विद्यालय को एक हजार रुपया प्रदान किया था। ये अभी थोड़े दिन हए मुरार आये थे। तब इन्होंने मुझसे कहा था कि यदि आप पपौरा पधारें तो मैं पपौरा विद्यालय को पच्चीस हजार रुपया दिलवाऊँगा। इसमें क्या रहस्य है, मैं नहीं समझा। परन्तु ये बहुत उदार हैं। सम्भव है, स्वयं विशेष दान करें। इन्होंने यहाँ द्वितीय प्रतिमा के व्रत लिए। इनके पचासों एकड़ भूमि है। उससे जो आय होती है, परोपकार में जाती है। अभी टीकमगढ़ में अन्नका बहुत कष्ट था तब इन्होंने सैकडों मन चावल भेजकर प्रजा में शांति स्थापित कराने में सहायता की थी। इनके उद्योग से गाँव में एक पाठशाला भी स्थापित हो गई है। मेरा भोजन इन्हीं के घर हुआ था। यहाँ से चलकर जतारा आया। यह वह स्थान है जहाँ पर मैंने श्री स्वर्गीय मोतीलालजी वर्णी के साथ रह कर जैनधर्मका परिचय प्राप्त किया था। यहाँ पर एक मन्दिर में प्राचीन कालका एक भोहरा है। उसमें बहुत ही मनोहर जिन प्रतिमाएँ हैं, जो अष्ट प्रातिहार्य सहित हैं। मुनिप्रतिमा भी यहाँ पर है। श्री पं. मोतीलालजी वर्णी पाठशाला के लिए एक मकान दे गए हैं और उसके सदा स्थिर रहने के लिए द्रव्य भी दे गये हैं। यद्यपि उनके भतीजे सम्पन्न हैं। वे स्वयं उसे चला सकते हैं, परन्तु गाँव के पंचों में परस्पर सौमनस्य न होने से पाठशाला का द्वार बन्द है। यहाँ दो दिन रहने के बाद श्री स्वर्गीया धर्ममाता चिरोंजाबाई जी के गाँव आया। यहाँ की जनताने बड़े ही स्नेह पूर्वक तीन दिन रक्खा । यहाँ से चलकर सतगुवां आया। एक दिन रहा। फिर बमौरी होता हुआ पृथ्वीपुर आया यह सम्पन्न बस्ती है, परन्तु परस्पर सौमनस्यके अभाव में धर्मका विशेष कार्य न हुआ। यहाँ से १. ये पंडित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीके बहनोई थे। पण्डितजीकी बहिन अभी भी जीवित हैं। वृद्धा होनेपर भी उनका पूरा समय धर्मकार्यमें व्यतीत होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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