Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 425
________________ मेरी जीवनगाथा 392 यहाँसे चार मील चलकर तिगोड़ा ग्राम आ गये। यहाँके मनुष्योंमें परस्पर चालीस वर्षसे वैमनस्य चल रहा था। वह शान्त हो गया और पाठशालाके लिये दो हजारसे अधिकका चन्दा हो गया। पाठशाला भी प्रारम्भ हो गई। यहाँ पर एक सिंघैनजी हैं, जो बहुत वर्षों से पृथक् थीं। इनके पति सिंघई हजारीलालजी बहुत प्रतापी थे। कई वर्ष हुए, तब आपका स्वर्गवास हो गया। उनकी धर्म-पत्नी सिंधैनने भी अपने घरकी सम्यक् रक्षा की, परन्तु जातिसे सम्बन्ध न रक्खा। आज उनका भी चित्त जातिसे सम्बन्ध करनेका हो गया, पंचोंने उसे सहर्ष स्वीकार किया। सिंधैनकी आयु सत्तर वर्षकी है, परन्तु हृदयकी निर्मल नहीं। एकाकी हैं, अतएव स्वतन्त्र हैं। स्वतन्त्रता ही बाधक है। मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करनेवाले जो महापुरूष हैं वे भी जब आचार्योंकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करते हैं, तब गृहस्थोंको तो किसी-न-किसी महापुरुषके अधीन रहना उचित ही है। आजकल जैनियोंमें मनुष्य स्वतन्त्र हो गये हैं। किसीके अधीन नहीं रहना चाहते। इसीसे इनके आचरण मलीन हो गये हैं। जैनियोंमें सबसे मुख्य पहले . पानी छानकर पीते थे, देवदर्शनका नियम रखते थे, रात्रिभोजन नहीं करते थे। परन्तु अब यह सब व्यवहार छूटता जाता है। नाना कुतर्क कर लोग शिथिल पक्षका पोषण करते हैं। नब्बे फीसदी अभक्ष्य भोजन करने लगे हैं। सौमें नब्बे आदमी अस्पतालकी औषध सेवन करते हैं। बाजारकी मिठाई, पान तथा सोडावाटर तो साधारण बात हो गई है। वेष-भूषा प्रायः एकदम बदल गयी है। स्त्रीवर्ग इतना सुकुमार प्रकृतिका बन गया है कि हाथसे पीसना कुटना पाप समझता है। शहरोंमें तो इसकी प्रशंसा समझी जाती है कि स्त्री हाथसे पीसे नहीं, केवल ऊपरी स्वच्छताका ध्यान रक्खे तथा वस्त्रोंको प्रतिदिन साबुन लगाकर स्वच्छ रक्खे, पनचक्कीका आटा पिसावे, पानी आदि स्वयं न लावे । कहाँ तक लिखें, सब आचारोंकी भ्रष्टताका मूल कारण प्रमाद है, जिसे शहरवालोंने अपना लिया है। जहाँ प्रमाद है वहाँ कुशल कार्यों में सुतरां अनादर होता है और यही प्राणियों के अकल्याणको पोषण करनेवाला है। अस्तु, जो होना है वह अनिवार्य है। यहाँसे चलकर मड़देवरा आये। यहाँ एक पाठशाला है। बाबा चिदानन्दीकी माँ का यहीं निवास है। यहाँसे चार मील चलकर शाहगढ़ आ गये। यहाँ तीन दिन रहे। पाठशाला के लिये लगभग दो हजार रुपयोंका चन्दा हो गया। यहाँ पर मंगली सिंघई बहुत चतुर थे। यहाँपर सागरसे सेठ भगवानदासजी बीड़ीवाले, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460