Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 434
________________ बुन्देलखण्डका पर्यटन 401 जैनातिरिक्त मतानुयायी साधुओं को नहीं मानते हो, मत मानो। परन्तु हमारा तो आपसे कोई द्वेष नहीं। मेरा तो आप पर अपने साधुओंके सदृश ही प्रेम है।' मैं उसकी यह प्रवृत्ति देख बहुत असमंजस में पड़ गया। हम लोग तो अन्य साधुको देखकर शिष्टाचारको तिलाञ्जलि दे देते हैं। जब तक किसी के साथ सज्जनताका व्यवहार नहीं किया जावे तब तक उसकी उस धर्म से, जिससे कि जगत् की रक्षा होती है, कैसे प्रेम हो सकता है ? धर्म तो आत्माका राग-द्वेष-मोह रहित परिणाम है। हम लोग यहाँ तक अनुचित बर्ताव करते हैं कि अन्य साधुओं के साथ सामान्य मनुष्यों के समान भी व्यवहार करने में संकोच करते हैं। यदि किसी ने उनसे कह दिया कि महाराज ! सीताराम, तो लोग उसे मिथ्यादृष्टि समझने लगते हैं। मैं कटनी के प्रकरण में घासवाली बुढ़िया और सत्तू वाले ब्राह्मण का जिक्र कर आया हूँ। उस समय मेरी वैसी प्रवृत्ति देख साथ वाले त्यागी कहने लगे-'वर्णीजी ! आप चरणानुयोगकी आज्ञा भंग करते हैं। उपवासके दिन ऐसी क्रिया करना अनुचित है।' मैंने कहा-'आपका कहना सर्वथा उचित है परन्तु मैं प्रकृतिसे लाचार हूँ तथा अन्तरंग से आप लोगों के सामने कहता हूँ कि यद्यपि मेरी दशमी प्रतिमा है, परन्तु उसके अनुकूल प्रवृत्ति नहीं। उसमें निरन्तर दोष लगते हैं। फिर भी स्वेच्छाचारी नहीं हूँ। मेरी प्रवृत्ति पराये दुःख को देखकर आर्द्र हो जाती है। यही कारण है कि मैं विरुद्ध कार्य का कर्ता हो जाता हूँ। मुझे उचित तो यह था कि कोई प्रतिज्ञा न लेता और न्यायवृत्ति से अपनी आयु पूर्ण करता। परन्तु अब जो व्रत अंगीकार किया है उसका निरतिचार पालन करने में ही प्रतिष्ठा है। इसका यह अर्थ नहीं कि लोक में प्रतिष्ठा है, प्रत्युत आत्माका कल्याण इसी में है। लोक में प्रतिष्ठाकी जो कामना है वह तो पतनका मार्ग है। आजकल आत्माका संसार में जो पतन हो रहा है उसका मूल कारण यही लौकिक प्रतिष्ठा है। जिस प्रकार आत्म-द्रव्य पुद्गलादिकोंसे भिन्न है उसी प्रकार स्वकीय आत्मा परकीय आत्मासे भिन्न है। आत्माका किसी अन्य आत्मासे मेल नहीं। हमने सिर्फ मोहवश नाता जोड़ रक्खा है। माता-पिता को अपनी उत्पत्तिका कारण मान रक्खा है। यह जो पर्याय है, इसका उन्हें कारण मान रात्रि-दिन मोही हो संकल्प-विकल्पोंके जाल में फँसे रहते हैं। माता-पिता उपलक्षण हैं। पुत्र, पुत्री, कलत्र, भ्रात्रादिके सम्बन्ध से आकुलित होकर आत्मीय आत्मतत्त्वकी प्रतीतिसे वंचित रहते हैं और जब आत्मतत्त्वकी प्रतीति नहीं तब सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी कथा से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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