Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 422
________________ जबलपुरसे सागर फिर द्रोणगिरि 389 की अच्छी प्रवृत्ति है। प्राचीन ग्राम है। तहसील है। सौ घर जैनियोंके हैं। परन्तु परस्पर सौमनस्य नहीं। एक औषधालय है, परन्तु स्थायी द्रव्य नहीं है। फिर भी मासिक चन्दा अच्छा है। यहाँ पर जो वैद्य हैं, बहुत योग्य हैं। श्रीयुत चन्द्रमौलिजी शास्त्रीके सम्बन्धी हैं। यहाँसे सात मील चलकर दलपतपुर आ गये। दो दिन रहे । यहाँसे चार मील चलकर रुरावनके स्कूलमें रात्रि भर ठहरे। यहाँसे दस मील चलकर एक नदीके तट पर ठहर गये । यहाँपर दो चौका शाहगढ़से और एक चौका दलपतपुरसे राजकुमारका आ गया। क्षुल्लक महाराजका निरन्तराय आहार हुआ। हम लोगोंका भी आनन्दसे भोजन हो गया। भोजन करते समय यह भावना हुई कि आज यदि दिगम्बर मुनियोंका आहार होता तो महान पुण्यबन्धका निमित्त था। यहाँ भोजनके बाद सामायिक की और फिर वहाँसे चलकर शाहगढ़ पहुँच गये। यह प्राचीन नगर है। पहले यहाँ पर क्षत्रियोंका राज्य था। बहुतसे भग्नावशेष अब तक पाये जाते हैं। यहाँ पर तीन जैन मन्दिर हैं- दो शिखरवाले और एक गुजराती है। पचास घर जैनियोंके होंगे, जो प्रायः सम्पन्न हैं। सिंघई किशनप्रसादजी कई लाखके धनिक हैं। नम्र और योग्य हैं, परन्तु द्रव्यके अनुरूप दान नहीं करते। यदि आप चाहें तो एक संस्था स्वयं चला सकते हैं। परन्तु उस ओर दृष्टि नहीं। दूसरा घराना सेठोंका है। बहोरेलाल सेठ बहुत वृद्ध हैं, फिर भी शरीर इतना बलिष्ठ है कि यदि अच्छे आदमीका हाथ पकड़ लें तो उसे छुड़ाना कठिन हो जावे। आपको सुपारी खानेका बड़ा व्यसन है। अब तो वृद्ध है, परन्तु युवावस्था में दस तोला सुपारी खाना आपको कठिन बात नही थी। आप जब पुरानी बातें सुनाते हैं तब लोग आश्चर्य में पड़ जाते हैं। पुराने समयमें एक रुपयेका जितना घी मिलता था अब एक रुपयेका उतना भूसा मिलता है। उनकी बात छोड़िये, मेरी बाल्यावस्थामें एक रुपयेंका जितना घी आता था उतना अब चावल नहीं मिलता। अस्तु, दूसरे सेठ प्यारेलालजी हैं। यह नवयुवक हैं। विद्याके प्रेमी हैं। यदि इसके पास द्रव्य पुष्कल होती तो एकाकी विद्यालय चलाते। यहाँ एक भूरे जैन रहता है जो बहुत योग्य व्यक्ति है। चौबीस घण्टे वैयावृत्यमें तत्पर रहता है। निर्लोभ बहुत है। गरीबोंकी सहायताका भी इसका परिणाम रहता है। सदाचारी है। यहाँपर तीन दिन रहे। यहाँसे सातमील चलकर हीरापुर आये। यहाँपर जैनियोंके पन्द्रह घर हैं। यहाँका मन्दिर बहुत ही मनोज्ञ है। दो खण्डवाली एक धर्मशाला है, जिसमें सौ आदमी ठहर सकते हैं। यहाँपर लोगोमें परस्पर प्रेम नहीं। यहाँ से चलकर दरगुवाँ आये । यही बाबा चिदानन्दजीकी जन्मभूमि है। एक दिन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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