Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 389
________________ मेरी जीवनगाथा 356 अवस्था न होती, वह स्मरण तो प्रमत्तगुणस्थानकी ही चर्चा थी। मैंने परिणामोंकी उत्तरोत्तर निर्मलतासे ही अर्हन्त पद पाया है, अतः जिन्हें इस पद की इच्छा हो वे भी इसी उपायका अवलम्बन करें। यदि दैगम्बरी दीक्षाकी योग्यता न हो तो देशविरत ही अंगीकार करो तथा देशविरतकी योग्यता न हो तो श्रद्धा तो रक्खो। जिस किसी भी तरह बने, इस परिग्रह-पापसे अवश्य ही आत्माको सुरक्षित रक्खो। परिग्रह सबसे महान् पाप है। मोक्षमार्गमें सबसे अधिक मुख्यता दृढ़ श्रद्धाकी है। इसके होने पर ही देशव्रत तथा महाव्रत हो सकते हैं। इसके बिना उनका कुछ भी महत्त्व नहीं होता। पूँजीके बिना व्यापार नहीं होता, दलाली भले ही करो | अतः आज हम सबको आत्माकी सत्य श्रद्धा करना चाहिये। सुनकर कई महाशयोंने कहा कि 'हमको वीरप्रभुके परम्परा उपदेशमें वास्तविक श्रद्धा है, परन्तु शक्तिकी विकलतासे व्रतादि धारण नहीं कर सकते। हाँ, यह नियम करते हैं कि अन्यायादि कार्योंसे बचेंगे।' एक आदमी बोला कि 'अब ऐसा समय आ गया है कि न्यायसे भोजन मिलना भी कठिन हो गया है। जैसे, मैं अपनी कहानी सुनाता हूँ-मेरे अभक्ष्यका त्याग है। बाजारमें अनाज मिलता नहीं। कंट्रोलकी दूकानसे मिलता है सो वहाँ यद्वा तद्वा चावल और गेहूँ मिलते हैं जो कि चरणानुयोग शास्त्रके अनुकूल नहीं। गेहूँ बींधा और चावल जीवराशिसे भरे रहते हैं। यदि उन्हें खाता हूँ तो अभक्ष्य भोजन करना पड़ता है और नहीं खाता हूँ तो उतनी शक्ति नहीं कि जिससे निराहार रह सकूँ। अन्तमें लाचार होकर ब्लैक मार्केटसे बहु कीमतमें अनाज लाकर भोजन करना पड़ता है। जो कि राजाज्ञाके विरुद्ध है.....ऐसी अवस्थामें क्या किया जावे ? अन्तमें यही संतोष करना पड़ता है कि यह पञ्चम् काल है। इसमें जब तक यह विदेशी लोग राजा रहेंगे तब तक प्रजाके धनको चूसेंगे और राज्यके जो अन्य कार्यकर्तागण होंगे वे भी कुटिल हृदयवाले होंगे। प्रजाकी नहीं सुनेंगे। केवल स्वोदरपोषण करना ही उनका लक्ष्य रहेगा। प्रजा चाहे जहन्नुममें जावे । अथवा इन्हें क्यों दोष दिया जावे ? सबसे महान् अपराध तो राजाका ही है, क्योकि प्रजा हमेशा राजाका अनुकरण करती है। किसी नीतिकारने अक्षरशः सत्य कहा हैं 'राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः। राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा।।' अर्थात् राजा यदि धर्मात्मा है जो प्रजा भी धर्मात्मा होती है , राजा पापी होता है तो प्रजा भी पापी होती है और राजा सम होता है तो प्रजा भी सम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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