Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 394
________________ राजगृहीमें धर्मगोष्ठी 361 सुतरां ममताबुद्धि हट जावेगी । 1 इस शरीर के जनक मुख्यतया माता और पिता हैं । पिताकी अपेक्षा माताका विशेष सम्बन्ध रहता है, क्योकि वह ही इसको पोषण करनेमें मुख्य कारण है। जब यह निश्चय है कि यह शरीर हमारा नहीं, क्योंकि इसकी रचना पुद्गलोंसे है । माताका रज और पिताका वीर्य, जो कि इसी उत्पत्तिमें कारण हैं, पौद्गलिक हैं। आहारादि, जिनसे कि इसका पोषण होता है, पौद्गलिक हैं, जिस कर्मके उदय से इसकी रचना हुई वह भी पौद्गलिक है, तथा इसकी वृद्धिमें जो सहायक हैं वे सब पौद्गलिक है.... तब इसे जो हम अपना मानते थे वह हमारी अज्ञानता थी । आज आगमाभ्यास, सत्समागम और कर्म लाघवसे हमारी बुद्धिमें यह आ गया कि हमारी पिछली मान्यता मिथ्या थी । हम लोगोंको इससे ममताभाव छोड़ देना ही कल्याण पथ है 1 कोई यह कहता था कि इस व्यर्थके वितण्डावादसे कुछ सार नहीं निकलता। जब यह निश्चय हो गया कि यह शरीर पर है, पौद्गलिक है और हम चेतन हैं, हमारा इसके साथ कोई भी वास्तविक सम्बन्ध नहीं। जो सम्बन्ध औपचारिक हैं वे बने ही रहेंगे, उनसे हमारी क्या हानि ? अतः हमें उचित है कि हम अपनी आत्मामें जो राग-द्वेष होते हैं उनसे तटस्थ रहें, उन्हें अपनानेका अभिप्राय त्याग दें । इस प्रकार प्रतिदिन हमारे साथ आगन्तुक महानुभावोंकी चर्चा होती रहती थी । वहाँ से आकर मन्दिरजीमें भी शास्त्र - प्रवचन करता था । श्रीयुत महाशय नन्दलालजी सरावगी जो कि बहुत सज्जन हैं और जिन्होंने यहाँ एक बंगला बनवाया है तथा कभी-कभी यहाँ आकर धर्मसाधनमें अपना समय बिताते हैं । आपका घराना बहुत ही धार्मिक है। आपके स्वर्गीय पिताजीने स्याद्वाद विद्यालय बनारसको ५०००) एकबार कलकत्तामें दान दिया था। आपकी कोठी कलकत्तामें हैं। आप बड़े-बड़े आफिसोंमें दलालीका काम करते हैं। यहाँ पर और भी अनेक कोठियाँ हैं । एक कोठी श्रीयुक्त कालूरामजी मोदी गिरीडीहवालोंने भी बनवाई है । Jain Education International इस प्रकार तीन मास मैं यहाँ रहा । यहाँका जलवायु अत्यन्त स्वच्छ है । हरी-भरी पहाड़ियोंके दृश्य, विलक्षण कुण्ड और प्राकृतिक कन्दराएँ सहसा मनको आकर्षित कर लेती हैं। विपुलाचलका दृश्य धर्मशालासे ही दिखाई देता है। यहाँ पहुँचते ही यह भाव हो जाता है कि यहाँ श्रीवीर भगवान्‌का समवसरण For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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