________________
मेरी जीवनगाथा
382
कटनीसे प्रस्थान करना पड़ा। प्रस्थानके समय बहुतसे भाइयोंने व्रत-नियम लिये।
जबलपुरके साथी जब जबलपुर पहुंचा तब साथमें ब्र. चिदानन्दजी तथा ब्र. क्षेमसागरजी थे, जो कि अब क्षुल्लक दशामें हैं। श्रीमान् पं. मनोहरलालजी ब्रह्मचारी भी थे, जो कि दुमदुमा, रियासत टीकमगढ़के निवासी हैं। न्यायतीर्थ तथा शोलापुरके शास्त्री हैं। आपके दो विवाह हुए थे। जब दूसरी पत्नीका स्वर्गवास हो गया तब आप संसारसे उदास हो गये। आपने अपने छोटे भाईके पास सब परिग्रह छोड़कर केवल दो हजार रुपयेका परिग्रह रक्खा । रक्खा अवश्य, परन्तु उससे भी निरन्तर उदास रहने लगे और उसे भी बरुवासागरके पार्श्वनाथ विद्यालयमें दान देकर तथा पाँच सौ रुपया श्री मूडबिद्रीकी यात्राके लिये रख अष्टमी प्रतिमाके धारी हो गये। आपकी प्रतिभा बहुत ही विशाल है। आपका प्रवचन बहुत रोचक होता है। श्रोतागण गद्गद हो जाते हैं। आपका स्वभाव शान्त है। आप मेरे साथ जबलपुरमें बहुत दिन रहे । एक दिन आपने कहा कि मेरा विचार है कि कुछ परोपकार करूँ। इसी समय ब्रह्मचारी चम्पालालजी भी वहाँ थे। आपका मुझसे बड़ा स्नेह था। आपको जीवकाण्ड तथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा प्रायः कण्ठस्थ थे। शास्त्र-प्रवचन भी घण्टों पर्यन्त करते थे। श्री मनोहरलालजीसे भी आपका पूर्ण स्नेह था। आप पहले इन्दौरके उदासीनाश्रममें थे। फिर कुछ दिन ईसरी भी रहे। इन दोनों महानुभावोंके सिवाय श्री ब्र. सुमेरुचन्द्रजी जगाधरीवाले भी साथ थे। आप बहुत ही विरक्त हैं। जातिके अग्रवाल हैं। आपके दो सुपुत्र हैं। लाखोंकी सम्पत्ति उनके पास छोड़कर आप त्यागी हुए हैं। आपने अपने परिग्रहमें एक मकान जिसका कि भाड़ा तीस रुपया मासिक आता है तथा पाँच हजार नगद ही रक्खे हैं। आपको धर्मसे अत्यन्त प्रेम है। निरन्तर स्वाध्यायमें रत रहते हैं। आपका भी विचार हुआ कि जीवनमें कुछ परोपकार करना चाहिये। इस प्रकार ये तीनों रत्न जबलपुरसे प्रस्थान कर हस्तिानपुर गये। वहाँ आप लोगोंने उत्तरप्रान्तमें धार्मिक शिक्षाके प्रसारकी आवश्यकता बतलाई, जिसे सुनकर लोग प्रभावित हुए। वहाँसे आप लोग सहारनपुर गये
और वहाँ श्रीयुत नेमिचन्द्रजी वकील तथा उनके भाई रत्नचन्द्रजी मुख्यार साहबके सहकारसे लाला जिनेश्वरदासजी ने दस हजार रुपया स्थायी तथा दो सौ रुपया मासिक देना स्वीकृत किया। इसी प्रकार और भी बहुतसे लोगोंने
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org