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मेरी जीवनगाथा
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'निरपेक्षो नयो मिथ्या' यह आचार्योंका वचन है। यदि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयमें परस्पर सापेक्षता नहीं है तो उनके द्वारा अर्थक्रियाकी सिद्धि नहीं हो सकती। इनके सिवाय एक यह बात भी हमारी याद रखना कि जिस कालमें जो काम करो, सब तरफसे उपयोग खींच कर चित्त उसीमें लगा दो। जिस समय श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा में उपयोग लगा हो उस समय स्वाध्यायकी चिन्ता न करो और स्वाध्यायके काल में पूजनका विकल्प न करो। जो बात न आती हो उसका उत्तर न दो, यही उत्तर दो कि हम नहीं जानते। जिसको तुम समझ गये कि हम गलत कह रहे थे, शीघ्र कह दो हम वह बात मिथ्या कह रहे थे। प्रतिष्ठाके लिए उसकी पुष्टि मत करो। जो तत्त्व तुम्हें अभ्रान्त आता है वह दूसरे से पूँछ कर उसे नीचा दिखानेकी चेष्टा मत करो। विशेष क्या कहें ? जिस में आत्माका कल्याण हो वही कार्य करना। भोजनके समय जो थाली में आवे उसे सन्तोषपूर्वक खाओ। कोई विकल्प न करो। व्रतकी रक्षा करनेके लिये रसना इन्द्रिय पर विजय रखना। विशेष कुछ नहीं । ..........
__इतना कहकर बाईजीने श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी टोंकपर द्वितीय प्रतिमाके व्रत लिये और यह भी व्रत लिया कि जिस समय मेरी समाधि होगी उस समय एक वस्त्र रखकर सबका त्याग कर दूंगी। क्षुल्लिका वेषमें ही प्राण विसर्जन करूँगी। यदि तीन मास जीवित रही तो सर्वपरिग्रहका त्याग कर नवमी प्रतिमाका आचरण करूँगी। हे प्रभो पार्श्वनाथ! तेरी निर्वाण भूमिपर प्रतिज्ञा लेती हूँ, इसे आजीवन निर्वाह करूँगी। कितने ही कष्ट क्यों न आवे सबको सहन करूँगी। औषधका सेवन मैंने आज तक नहीं किया। अब केवल सूखी वनस्पति को छोड़कर अन्य औषधि सेवनका त्याग करती हूँ। वैसे तो मैंने १८ वर्ष की अवस्थासे ही आज तक एक बार भोजन किया है, क्योंकि मेरी १८ वर्ष में वैधव्य अवस्था हो चुकी थी। तभीसे मेरे एक बार भोजन का नियम था। अब आपके समक्ष विधिपूर्वक उसका नियम लेती हूँ। मेरी यह अन्तिम यात्रा है। हे प्रभो ! आज तक मेरा जीव संसारमें रुला इसका मूल कारण आत्मीय-अज्ञान था। परन्तु आज तेरे चरणाम्बुज प्रसाद से मेरा मन स्वपर ज्ञान में समर्थ हुआ। अब मुझे विश्वास हो गया कि मैं अपनी संसार-अटवीको अवश्य खेदूंगी। मेरे ऊपर अनन्त संसारका जो भार था, वह आज तेरे प्रसादसे उतर गया।
श्रीबाईजीकी आत्मकथा हे प्रभो ! मैं एक ऐसे कुटुम्बमें उत्पन्न हुई जो अत्यन्त धार्मिक था। मेरे
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