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मेरी जीवनगाथा
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पालन किया। उसने छाँछ माँगी, मैंने रबड़ी दी । यद्यपि इसकी प्रकृति सरल थी तो भी बीचमें इसे क्रोध आ जाता था, परन्तु मैं सहन करती गई, क्योंकि एक बार इसे पुत्रवत् मान चुकी थी ।
एक दिनकी बात है मैं आँख कमजोर होनेसे उसमें मोती का अंजन लगा रही थी। गणेशप्रसादने कहा- 'माँ ! मैं भी लगाता हूँ।' मैंने कहा - 'बेटा तेरे योग्य नहीं ।' परन्तु वह नहीं माना। लगानेसे उसकी आँखमें कुछ पीड़ा देने लगा, आँख आँसुओंसे भर गई और गुस्सेमें आकर उसने शीशी फोड़ डाली, सोलह रुपयाका नुक्सान हुआ । मैंने कहा - 'बेटा ! नुक्सान किसका हुआ ? फिर दूसरी शीशी मँगाओ ।'
एक बात इसमें सबसे उत्तम यह थी कि दुःखी आदमीको देखकर 'उसके उपकारकी चेष्टा करनेमें नहीं चूकता था । यदि इसके पहिननेका भी वस्त्र होता और किसीको आवश्यकता होती तो यह दे देता था। एक बार यह शिखरजीमें प्रातःकाल शौचादि क्रियाको गया था, मार्गमें एक बुढ़िया ठण्डसे काँप रही थी । यह जो चद्दर ओढ़े था उसे दे आया और काँपता- काँपता धर्मशाला में आया। मैंने कहा- चद्दर कहाँ है ?' बोला- 'एक बुढ़ियाको दे आया हूँ।' एक बार इसको मैंने छह सौ रुपयेकी हीराकी अँगूठी बनवा दी। इसने अपने गुरु अम्बादास शास्त्री को दे दी और मुझसे छह मास तक नहीं कहा । भय भी करता था । अन्तमें मैंने जब जोर देकर कहा कि अंगूठी कहाँ है ? तब बोला वह तो मैंने अष्टसहस्री पूर्ण होनेकी खुशीमें शास्त्रीजीको दे दी.... इस तरह मेरी जो आय होती थी वह प्रायः इसीके खर्चमें जाती थी ।
कुछ दिनके बाद मैं सिमरा छोड़कर बरुआसागर आ गई, किसानों के ऊपर जो कर्ज था सब छोड़ दिया और मेरे रहनेका जो मकान था वह मन्दिरको दे दिया । केवल दस हजारकी सम्पत्ति लेकर सिमरासे बरुआसागर आ गई और सर्राफ मूलचन्द्रजीके यहाँ रहने लगी। वे सौ रुपया मासिक ब्याज उपार्जन कर मुझे देने लगे ।
कुछ दिन बाद सागर आगई और सि. बालचन्द्रजी सवालनवीसके मकान में रहने लगी । आनन्दसे दिन बीते । यहाँ पर सिंघई मौजीलालजी बड़े धर्मात्मा पुरुष थे। वह निरन्तर मुझे शास्त्र सुनाने लगे। कटरामें प्रायः गोलापूर्वसमाजके घर हैं । प्रायः सभी धार्मिक हैं । यहाँ पर स्त्री समाजका मेरे
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