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बाईजी का समाधिमरण
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दलबल देवी देवता मात पिता परिवार।
मरती विरिया जीवको कोई न राखन हार ।।' उसी समय कार्तिकेय स्वामीके शब्दों पर स्मरण जा पहुँचा
जं किंचि वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण । परिणामसरूवेण वि ण य किं पि वि सासयं अत्थि ।। सीहम्मकये पडियं सारंग जह ण रक्खए को वि।
तह मिच्चुणा वि गहियं जीवं पि ण रक्खए को वि।।' जो कोई वस्तु उत्पन्न होती है उसका विनाश नियमसे होता है। पर्यायरूप कर कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है। सिंहके पैरके नीचे आये मृगकी जैसे कोई रक्षा नहीं कर सकता। उसी प्रकार मृत्यु के द्वारा गृहीत इस जीवकी कोई रक्षा नहीं कर सकता। इसका तात्पर्य यह है कि पर्याय जिस कारणकूट से होती है उसके अभाव में वह नहीं रह सकती। प्राणीके अन्दर एक आयु प्राण है उसका अभाव होने पर एक समय भी जीव नहीं रह सकता। अन्य की कथा छोड़ो, स्वर्गके देवेन्द्र भी आयुका अवसर होने पर एक समयमात्र भी स्वर्गमें ठहरनेके लिए असमर्थ हैं। अथवा देवेन्द्रोंकी कथा छोड़ो, श्रीतीर्थंकर भी मनुष्यायु का अवसान होनेपर “एक सेकेण्ड' भी नहीं रह सकते। यह बात यद्यपि आबालवृद्ध विदित है, फिर भी पर्याय के रखनेके लिये मनुष्यों द्वारा बड़े-बड़े प्रयत्न किये जाते हैं। यह सब पर्यायबुद्धिका फल है। इसका भी मूलकारण वही है कि जो संसार बनाये हुए है। जिन्हें संसार मिटाना हो उन्हें इस पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
'हेउअभावे णियमा णाणिस्स आसवणिरोहो। आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स विण णिरोहो।। कम्मस्साभावेण य णोकम्माणं पि जायइ णिरोहो।
णोकम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होइ।। संसार के कारण मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग ये चार हैं। इनके अभावमें ज्ञानी जीवके आस्रवका अभाव होता है। जब आस्रवभावका अभाव हो जाता है तब ज्ञानावरणादि कर्मोंका अभाव हो जाता है और जब कर्मोंका अभाव हो जाता है तब नोकर्म-शरीरका भी अभाव हो जाता है एवं जब औदारिकादि शरीरोंका अभाव हो जाता है तब संसारका अभाव हो जाता है.. इस तरह यह प्रक्रिया अनादिसे हो रही है और जब तत्त्वज्ञान हो जाता है तब यह प्रक्रिया अपने आप लुप्त हो जाती है, स्वाभाविक प्रक्रिया होने लगती है। पर्याय क्षणभंगुर संसारमें भी है और मुक्ति में भी है।
बाईजीका शव देखकर मैं तो चित्रामका-सा पुतला हो गया। वर्णीजीने
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