Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 371
________________ मेरी जीवनगाथा 338 केवल आत्मीय अज्ञान से ही उन्हें सुख तथा दुःख का कारण मान लेता है । कामलारोगवाला श्वेत शंखको पीत मान लेता है पर वास्तव में वह पीला नही। यह तो उसके नेत्रका ही दोष है। हम लोग उस अज्ञानकी निवृत्तिका तो प्रयत्न करते नहीं, केवल परपदार्थों में गुण दोषकी कल्पना करके जन्म खो देते हैं। यह सब मोहकी महिमा है।...... इस प्रकार सब लोग विचार करने में अपने समय का सदुपयोग कर रहे थे कि इतनेमें एक त्यागी महाशय बोल उठेमध्याह्नकी सामायिकका समय हो गया। सब त्यागीमण्डलने वहीं श्रीपार्श्वप्रभुके चरणमूलमें सामायिक की। पश्चात् वहाँसे चलकर तीन बजे मधुवन आ गये। भोजन कर आराम किया। सायंकाल चबूतराके ऊपर सामायिक आदि करके मन्दिरजीमें शास्त्रप्रवचन सुना। __ ईसरीमें उदासीनाश्रम शास्त्र-प्रवचनके अनन्तर सबके मुखकमलसे यही ध्वनि निकली कि संसार-बन्धनसे छूटनेके लिये यहाँ रहा जाय और धर्मसाधनके लिये यहाँ एक आश्रम खोला जावे। उसीमें रह कर हम सब धर्मसाधन करें। इस गोष्ठीमें श्रीमान् बाबू सखीचन्द्रजी, श्रीसेठी चम्पालालजी गया, श्रीरामचन्द्रजी बाबू गिरिडीह, श्री भोरीलालजी सेठी हजारीबागरोड, श्री बाबू कन्हैयालालजी गया, बाबू गोविन्दलालजी गया, बाबू सूरजमल्ल जी पटना, सेठ कमलापतिजी बरायठा, श्री पं. पन्नालालजी मैनेजर तेरापन्थी कोठी तथा बाबू घासीरामजी ईसरी आदि महानुभाव थे। सबकी सम्मति हुई कि ईसरीमें एक उदासीनाश्रम खोला जावे। इसके लिये दो सौ रुपया मासिक का चन्दा हुआ। कुछ देर बाद सेठी चम्पालालजी गयाने बाबू सूरजमल्लजी से कहा-'आपने कहा था कि मैं स्वयं एक आश्रम बनवाऊँगा, अब आप क्यो नहीं बनवाते ?' पहले तो उन्होंने आनाकानी की। पश्चात् कहा-'यदि आप लोग मुझसे आश्रमका मकान बनवाना चाहते हैं तो मैं इसमें किसीका चन्दा न लूँगा, अकेला ही इसे चलाऊँगा।' सब लोगोंने हर्षध्वनिके साथ स्वीकार किया। उन्होंने एक बड़ी भारी जमीन खरीद कर उसमें आश्रमकी नींव डाली और पच्चीस हजार रुपये लगाकर बड़ा भारी आश्रम बनवा दिया, जिसमें पच्चीस ब्रह्मचारी सानन्द धर्म साधन कर सकते हैं। आश्रम ही नहीं, एक सरस्वतीभवन भी दरवाजेके ऊपर बनवा दिया और निजके धर्मसाधनके लिए एक मंजला मकान पृथक् बनवाया। इतना ही नहीं, आश्रमकी रक्षाके लिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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