Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 375
________________ मेरी जीवनगाथा 342 सुनाता रहा। आश्रमके त्यागी भी बराबर धर्म सुनाते रहे। अन्तमें निर्वाण अमावस्यके दिन आप बोले कि 'लाडू उत्सव करके जल्दी आओ।' मैंने कहा-'पश्चात् चला जाऊँगा। आप बोले-'नही जल्दी जाओ और जल्दी ही आ जाओ।' मै महावीर स्वामीकी निर्वाण पूजा कर वापिस आ गया। आप बोले-गुलवनसफाका काढ़ा लाओ।' मैं काढ़ा बना लाया। बाबा बोले-उठाओ।' मैंने उठाकर काढ़ा पिलाया। आप बोले-'अब न बचेंगे।' 'णमो अरिहंताणं' शब्दका उच्चारण किया। पश्चात् पेशाबको बैठे। पेशाबके बाद बिस्तर पर आये। दोनों हाथ मस्तकसे लगाये, इतनेमें ही आपके प्राण पखेरु उड़ गये। आपके पास जो द्रव्य था आश्रमके लिये दे गये। इसी तरह यहाँपर श्यामलालजी त्यागीके पिताका समाधिमरण हुआ। आपका मरण इस रीतिसे हुआ जिस रीति से प्रायः उत्तम पुरुषोंका होता है। आप प्रातःकाल बैठे थे, कुल्ला किया और परमेष्ठीका नाम लिया। लड़केने कहा-'बोलते क्यों नहीं ?' बस आपका प्राण निकल गया। इसी तरह बाबा लालचन्द्रजीका भी यहाँ समाधिकपूर्वक स्वर्गवास हुआ। वास्तवमें यह स्थान समाधिके लिये अत्यन्त उपयुक्त है। लाला सुमेरुचन्द्रजी बड़े धर्मात्मा हैं। आप जगाधरी (पंजाब) के रहने वाले हैं। आपके एक भाई थे, जिनका अब स्वर्गवास हो गया है। दो सुपुत्र हैं। एकका नाम मुन्नालाल और दूसरेका नाम सुमतिप्रसाद है। दोनों ही शील स्वभाववाले हैं। आपके बड़े सुपुत्र एक बार मेरे पास आये और बोले 'मुझे कुछ व्रत दीजिये।' मैंने कहा-सबसे महान् व्रत ब्रह्मचर्य है (ब्रह्मचर्यसे मेरा तात्पर्य स्वदारसन्तोषसे है)।" आपने पहले स्वीकार करते हुए कहा-'यह तो गृहस्थोंका मुख्य कर्तव्य ही है। इसमें कोई महत्त्वका कार्य नहीं, कुछ और दीजिये।' मैने कहा-अष्टमी, चतुर्दशी, तीनों समय अष्ठाह्निकामें और भाद्रमासके सोलहकारणोंमें ब्रह्मचर्यसे रहो।' आपने सहर्ष स्वीकार किया। अनन्तर मैंने कहा-'न्यायसे धनार्जन करना चाहिये। यह भी आपने स्वीकृत किया। किन्तु आप बोले कि ‘ऐसा निकृष्ट समय है कि जिसमें न्यायसे धनार्जन करना कठिन हो गया। ऐसे-ऐसे कानून बन गये हैं कि जिनमें प्रजाकी स्वीकारताका अंश भी नहीं है। बिना रिश्वत दिये एक स्थान से स्थानान्तर माल ले जाना दुर्लभ है। और कथा छोडियें, स्टेशन पर बिना घुस दिये टिकट मिलना कठिन हो गया है। तनको वस्त्र मिलना दुर्लभ है। बहुत कहाँ तक कहें ? यदि अतिथिको भोजन कराते हैं तो उसमें भी चोरीका दोष आता है। अस्तु, हम यथायोग्य इसका पालन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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