Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 364
________________ गिरिराजकी पैदल यात्रा 331 मूल सिद्धान्त है। यह बात प्रत्यक्ष देखनेमें आती है कि मदिरा पान करनेवाले उन्मत्त हो जाते हैं और उन्मत्त होकर जो जो अनर्थ करते हैं, सब जानते हैं। मदिरा पान करनेवालोंकी तो यहाँ तक प्रवृत्ति देखी गई कि वे अगम्यागमन भी कर बैठते हैं। मदिराके नशेमें मस्त हो नालियोंमें पड़ जाते हैं। कुत्ता मुखमें पेशाब कर रहा है फिर भी मधुर-मधुर कह कर पान करते जाते हैं। बड़े-बड़े कुलीन मनुष्य इसके नशे में अपना सर्वस्व खो बैठते हैं। उन्हें, धर्मकथा नहीं रुचती। केवल वेश्यादि व्यवसनोंमें लीन रहकर इहलोक और परलोक दोनोंकी अवहेलना करते रहते हैं। इसी को श्रीअमृतचन्द्र स्वामीने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें अच्छी तरह दर्शाया है। लिखते हैं 'मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम्। विस्मृतधर्मो जीवो हिंसां निःशड्.कमाचरति।।' मदिरा मनको मोहित करती है। जिसका चित्त मोहित हो जाता है वह धर्मको भूल जाता है और जो मनुष्य धर्मको भूल जाता है वह निःशड्.क होकर हिंसाका आचरण करता है। जैनधर्मका दूसरा सिद्धान्त यह है कि मांस भक्षण नहीं करना चाहिये। मांसकी उत्पत्ति जीवघातके बिना नहीं होती। जरा विचारों तो सही कि जिस प्रकार हमें अपने प्राण प्यारे हैं उसी प्रकार अन्य प्राणियोंको क्या उनके प्राण प्यारे न होंगे? जब जरासी सुई चुभ जाने अथवा काँटा लग जानेसे हमें महती वेदना होती है तब तलवार से गला काटने पर अन्य प्राणियोंको कितनी वेदना होती होगी ? परन्तु हिंसक जीवोंको इतना विवेक कहाँ ? हिंसक जीवोंको देखनेसे ही भयका संचार होने लगता है। हाथी इतना बड़ा होता है कि यदि सिंहपर पर पैर रख दे तो उसका प्राणान्त हो जावे, परन्तु वह सिंहसे भयभीत हो जाता है। क्रूर सिंह छलांग मार कर हाथी के मस्तकपर धावा बोल देता है। इसीसे उसको गजारि कहते हैं। मांस खानेवाले अत्यन्त क्रूर हो जाते हैं। उनसे संसारका उपकार न हुआ है न होगा। भारतवर्ष दयाप्रधान देश था। इसने संसारके प्राणीमात्रको धर्मका उपदेश सुनाया है। यहाँ ऐसे-ऐसे ऋषि उत्पन्न हए कि जिनके अवलोकनसे कर जीव भी शान्त हो जाते थे। जैसा कि एक जगह कहा है'सारङगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं मार्जारो हंसबालं प्रणयपरवशं केकिकान्ता भुजड,गम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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