Book Title: Meri Jivan Gatha
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 331
________________ मेरी जीवनगाथा 298 बुद्धि होती है। इस प्रकार वास्तव में अहम्बुद्धि ही दुःख का कारण है। हे भगवन् ! आज तेरे समक्ष यह प्रतिज्ञा करती हूँ कि न मेरा कोई है और न मैं किसीकी हूँ। यह जो शरीर दीखता है वह भी मेरा नहीं है, क्योंकि दृश्यमान शरीर पुद्गलका पिण्ड है। तब मेरा कौनसा अंश उसमें है जिसके कि साथ मैं नाता जोडूं ? आज मेरी भ्रान्ति दूर हुई। जो मैंने पाप किया उसका आपके समक्ष प्रायश्चित लेती हूँ। वह यह कि आजन्म एक बार भोजन करूँगी, भोजन के बाद दो बार पानी पिऊँगी, अमर्यादित वस्तु भक्षण न करूँगी, आपके पूजाके बिना भोजन न करूँगी, रजोदर्शनके समय भोजन न करूँगी, यदि विशेष बाधा हुई तो जलपान कर लूँगी, यदि उससे भी संतोष न हुआ तो रसोंका त्यागकर नीरस आहार ले लूँगी, प्रतिदिन शास्त्रका स्वाध्याय करूँगी, मेरे पतिकी जो सम्पत्ति है उसे धर्म कार्यमें व्यय करूँगी; अष्टमी, चतुदर्शीका उपवास करूँगी यदि शक्तिहीन हो जावेगी तो एक बार नीरस भोजन करूँगी, केवल चार रस भोजनमें रखूगी, एक दिनमें तीनका ही उपयोग करूँगी|... इस प्रकार आलोचना कर डेरामें मैं आ गई और सासको, जो कि पुत्रके विरहमें बहुत ही खिन्न थीं सम्बोधा-माताराम ! जो होना था वह हुआ, अब खेद करनेसे क्या लाभ? आपकी सेवा मैं करूँगी, आप सानन्द धर्मसाधन कीजिये। यदि आप खेद करेंगी तो मैं सुतरां खिन्न होऊँगी, अतः आप मुझे ही पुत्र समझिये। मेलाके लोग इस प्रकार मेरी बात सुनकर प्रसन्न हुए। __पावागढ़से गिरनार जी गये और वहाँसे जो तीर्थमार्गमें मिले सबकी यात्रा करते हुए सिमरा आ गये। फिर क्या था ? सब कुटुम्बी आ आकर मुझे पतिवियोगके दुःखका स्मरण कराने लगे। मैंने सबसे सान्त्वनापूर्वक निवेदन किया कि जो होना था सो हो गया। अब आप लोग उनका स्मरणकर व्यर्थ खिन्न मत हूजिये। खिन्नताका पात्र तो मैं हूँ, परन्तु मैंने तो यह विचारकर सन्तोषकर लिया कि परजन्ममें जो कुछ पापकर्म मैंने किये थे यह उन्हींका फल है। परमार्थसे मेरे पुण्यकर्म का उदय है। यही उनका समागम रहता तो निरन्तर आयु विषय भोगोंमें जाती, अभक्ष्य भक्षण करती और दैवयोगसे यदि सन्तान हो जाती तो निरन्तर उसके मोहमें पर्याय बीत जाती। आत्मकल्याणसे वंचित रहती, जिस संयमके अर्थ सत्समागम और मोह मन्द होने की आवश्यकता है तथा सबसे कठिन ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करना है वह व्रत मेरे पतिके वियोग से अनायास हो गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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