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छात्रसभामें मेरा भाषण
'सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवनदुःखसौख्यम् ।
अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य
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कुर्यान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।।'
'इस लोकमें जीवोंके जो मरण, जीवन, दुःख और सुख होते हैं वे सब स्वकीय कर्मोंके उदयसे होते हैं...... ऐसा होनेपर भी जो ऐसा मानते हैं कि परके द्वारा परके जीवन, मरण, दुःख और सुख होते हैं.. . यह अज्ञान है ।'
बाबाजीके प्रति मेरी यह दृढ़ श्रद्धा है कि उन्होंने मेरा कुछ नहीं किया और न अब आगे ही कुछ कर सकते हैं। मेरा असाताका उदय था, उन्होंने पृथक् करनेका आदेश दे दिया और कौन देख आया, साताका उदय आ जावे तो उनके ही श्रीमुखसे निकल पड़े कि तुम्हारा अपराध क्षमा किया जाता है । यह बात असम्भव भी नहीं, कर्मोंकी गति विचित्र है । जैसे देखिये, प्रातः काल श्रीरामचन्द्रजी महाराजको युवराज-तिलक होनेवाला था, जहाँ बड़े-से-बड़े ऋषिलोग मुहूर्त शोधन करनेवाले थे, किसी प्रकारकी सामग्रीकी न्यूनता न थी, पर हुआ क्या ? सो पुराणोंसे सबको विदित है । किसी कविने कहा भी है
'यच्चिन्तितं तदिह दूरतरं प्रयाति
यच्चेतसापि न कृतं तदिहाभ्युपैति । प्रातर्भवामि वसुधाधिपचक्रवर्ती
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सोऽहं व्रजामि विपिने जटिलस्तपस्वी ।।'
इत्यादि बहुत कथानक शास्त्रोंमें मिलते हैं। जिन कार्योंकी सम्भावना भी नहीं वह आकर हो जाते हैं और जो होनेवाले हैं वह क्षणमात्रमें विलीन हो जाते हैं, अतः मैं आप लोगोंसे यह भिक्षा नहीं चाहता कि बाबाजीसे मेरे विषयमें कुछ कहें।
कहाँ तो यह मनोरथ कि इस वर्ष अष्टसहस्रीमें परीक्षा देकर अपनी मनोवृत्तिको पूर्ण करेंगे एवं देहातमें जाकर पद्मपुराणके स्वाध्याय द्वारा ग्रामीण जनताको प्रसन्न करनेकी चेष्टा करेंगे और कहाँ यह बाबाजीका मर्मघाती उपदेश .........कहाँ तो बाबाजीसे यह घनिष्ठ सम्बन्ध कि बाबाजी मेरे बिना भोजन न करते थे और कहाँ यह आज्ञा कि निकल जाओ.......पाप कटा । यह उनका दोष नहीं, जब अभाग्यका उदय आता है तब सबके यही होता है। अब इस रोनेसे क्या लाभ ? आप लोगोंसे हमारा घनिष्ठ सम्बन्ध रहा, आप लोगोंके सहवाससे अनेक प्रकारके लाभ उठाये । अर्थात् ज्ञानार्जन, सिंहपुरी - चन्द्रपुरीकी यात्रा, पठन-पाठनका सौकर्य और सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि आज स्याद्वाद
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