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मेरी जीवनगाथा
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इस प्रकार ऊहापोह करते हुए हम लोग एक मील न चले होंगे कि एक साधु लोगोंका अखाड़ा मिला। कई गायें भी वहाँ पर थीं। अनेक बाह्य साधन शरीरके पुष्टिकर थे। साधु लोग भी शरीरसे पुष्ट थे और श्री रामचन्द्रजीके उपासक थे। कल्याण-इच्छुक अवश्य हैं, परन्तु परिग्रहने उसमें बाधा डाल रक्खी है। यदि यह परिग्रह न हो तो कल्याणका मार्ग पास ही है, पर परिग्रहका पिशाच तो हृदयपर अपना ऐसा प्रभाव जमाये है, जिससे घरका त्याग किसी उपयोगमें नहीं आता। घर का त्यागना कोई कठिन वस्तु नहीं, परन्तु आभ्यन्तर मूर्छा त्यागना सरल भी नहीं | त्याग तो आभ्यन्तर ही है। आभ्यन्तर कषायके बिना बाह्य वेषका कोई महत्त्व नहीं। सर्प बाह्य काँचली छोड़ देता है। परन्तु विष नहीं त्यागता, अतः उसका बाह्य त्याग कोई महत्त्व नहीं रखता। इसी प्रकार कोई बाह्य वस्त्रादि तो त्याग दे और अन्तरंग रागादि नहीं त्यागे तो उस त्यागका क्या महत्त्व ? धान्यके ऊपरी छिलकाका त्याग किये बिना चावलका मल नहीं जाता, अतः बाह्य त्यागकी भी आवश्यकता है। परन्तु इतने ही से कोई चाहे कि हमारा कल्याण हो जावेगा सो नहीं। धान्यके छिलकाका त्याग होने पर भी चावलमें लगे हुए कणको दूर करनेके लिये कुटनेकी आवश्यकता है। फिर भला जिनके बाह्य त्याग नहीं उनके तो अन्तरंग त्यागका लेश भी नहीं। मैं किसी अन्य मतके साधुकी अपेक्षा कथन नही करता। परन्तु मेरी निजी सम्मति तो यह है कि बाह्य त्याग बिना अन्तरंग त्याग नहीं होता और यह भी नियम नहीं कि बाह्य त्याग होनेपर आभ्यन्तर त्याग हो ही जावे । हाँ, इतना अवश्य है कि बाह्य त्याग होनेसे ही अन्तरंग त्याग हो सकता है। दृष्टान्त जितने मिलते हैं, सर्वांशमें नहीं मिलते, अतः वस्तुस्वरूप विचारना चाहिये। दृष्टान्त तो साधक है। अब हमको प्रकृतमें आना चाहिये। जहाँ हमारे परिणामोंमें रागादिकसे उदासीनता आवेगी वहाँ स्वयमेव बाह्य पदार्थों से उदासीनता आ जावेगी। परपदार्थके ग्रहण करनेमें मूल कारण रागादिक ही हैं। बाह्य पदार्थ ही न होते तो अनाश्रय रागादिक न होते ऐसा कुतर्क करना न्यायमार्गसे विरुद्ध है। जिस प्रकार जीवद्रव्य अनादिकालसे स्वतः सिद्ध है उसी प्रकार द्रव्य भी अनादिसे ही स्वतः सिद्ध है। कोई किसीको न तो बनानेवाला है और न कोई किसीका विनाश करनेवाला है। स्वयमेव यह प्रक्रिया चली आ रही है। पदार्थों में परिणमन स्वयमेव हो रहा है। कुम्भकारका निमित्त पाकर घट बन जाता अवश्य है, पर न तो कुम्भकार मिट्टीमें कुछ अतिशय कर देता है और न मिट्टी कुम्भकारमें कुछ अतिशय पैदा कर देती है। कुम्भकारका व्यापार कुम्भकारमें होता है और मिट्टीका व्यापार मिट्टीमें। फिर भी
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