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मेरी जीवनगाथा
हो ।" मैंने कहा - 'सामायिकमें स्वप्न आ गया।' कहनेका तात्पर्य यह है कि जो धारणा हृदयमें हो जाती है वही तो स्वप्नके समयमें आती है । इस प्रकार सागर पाठशालाके ध्रौव्यफण्डमें २६०००) के लगभग रुपया हो गया। श्री सिंघई कुन्दनलालजीके पिता कारेलालजीने भी अपने स्वर्गवासके समय ३०००) तीन हजार दिये ।
श्री सिंघई रतनलालजी
इतनेमें ही श्री सिंघई रतनलालजी साहब, जो कि बहुत ही होनहार और प्रभावशाली व्यक्ति थे तथा पाठशालाके कोषाध्यक्ष थे, कोषाध्यक्ष ही नहीं पाठशालाकी पूरी सहायता करते थे और जिन्होंने सर्वप्रथम अच्छी रकम बोलकर कलशोत्सवके समय हुए पन्द्रह हजार रुपयोंके चन्देका श्री गणेश कराया था, एकदम ज्वरसे पीड़ित हो गये। आपने बाईजीको बुलाया और कहा - 'बाईजी ! अब पर्यायका कोई विश्वास नहीं । डालचन्द्र अभी बालक है, परन्तु इसकी रक्षा इसका पुण्य करेगा। मैं कौन हूँ? मैं अब परलोककी यात्रा कर रहा हूँ। मेरी माँ व गृहिणी सावधान हैं। मेरी माताका आपसे घनिष्ठ सम्बन्ध है, अतः आप उन्हें शोकसागरमें निमग्न न होने देंगी। इनका आपमें अटल विश्वास है। डालचन्द्र मेरा छोटा भाई है। इसकी रुचि पूजन तथा स्वाध्यायमें निरन्तर रहती है तथा कोई व्यसन नहीं, यह बड़ी प्रसन्नताकी बात है । मुझे किसी बातकी चिन्ता नहीं । यदि है तो केवल इस बातकी कि इस प्रान्तमें कोई विद्यायतन नहीं है । दैवयोगसे यह एक विद्यालय हुआ है, 1 परन्तु उसमें यथेष्ट द्रव्य नहीं । परन्तु अब क्या कर सकता हूँ ? यदि मेरी आयु अवशेष रहती तो थोड़े ही कालमें एक लाख रुपयाका ध्रौव्यकोष कर देता पर अब व्यर्थकी चिन्तासे क्या लाभ ? मैं दश हजार रुपये विद्यादानमें देता हूँ ।' बाईजीने कहा- 'भैया ! यही मनुष्य पर्यायका सार है ।'
सिंघई रतनलालजीने उसी समय दस हजार रुपये पृथक् करा दिये और छोटे भाईसे कहा - 'डालचन्द्र ! संसार अनित्य है । इसमें कदापि ध्रौव्यकल्पना न करना । न्यायमार्गसे जीवन बिताना । जो तुम्हारी आय है उसमें सन्तोष रखना । जो अपने धर्मायतन हैं उनकी रक्षा करना तथा जो अपने यहाँ विद्यालय है उसकी निरन्तर चिन्ता रखना । पुण्योदयसे यह मानुष तन मिला है इसे व्यर्थ न खोना । अब हमारा जो सम्बन्ध था वह छूटता है । माँको हमारे वियोगका दुःख न हो। यह जो तुम्हारी भौजाई और उनका बालक है वे दुःखी
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