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द्रौपदी
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बन्द कर खा लेता हूँ ।'
मेरी कथाको श्रवणकर बुड्ढे ब्राह्मण महाराजको दया आ गई। उन्होंने मोहल्लेके सब ब्राह्मणोंको जमाकर यह प्रतिज्ञा करायी कि 'जब तक यह अपने ग्राममें छात्र रूपसे रहे तब तक आप लोग मत्स्यमांस न बनावें और न देवी पर बलि प्रदान करें। यह भद्र प्रकृतिका बालक है। इसके ऊपर हमें दया करना चाहिये।' इस तरह मेरा निर्वाह होने लगा। आटा आदिकी भी व्यवस्था हो गई और आनन्दसे अध्ययन चलने लगा ।
द्रौपदी
इस चकौतीमें एक ऐसी विलक्षण घटना हुई कि जिसे सुनकर पाठकगण आश्चर्यान्वित हो जावेंगे। इस घटनामें आप देखेंगे कि एक ही पर्यायमें जीव पापात्मासे पुण्यात्मा किस प्रकार होता है । घटना इस प्रकार है
यहाँ पर एक ब्राह्मण था, जो बहुत ही प्रतिष्ठित धनाढ्य, विद्वान् और राज्यमान था। उसकी एक पुत्री थी - द्रौपदी । जो अत्यन्त रूपवती थी । केश उसके इतने सुन्दर और लम्बे थे कि एड़ी तक आते थे और मुखकी कान्ति इतनी सुन्दर थी कि उसे देखकर अच्छे-अच्छे रूपवान् पुरुष और रूपवती स्त्रियाँ लज्जित हो जाती थीं । दुर्भाग्यवश वह बाल्यावस्थासे ही विधवा हो गई। उस कन्याके साथ उसके माता पिताका अत्यन्त गाढ़ प्रेम था, अतः उन्होंने उसे उसके श्वसुरगृह नहीं भेजा । अन्तमें उसका चरित्र भ्रष्ट हो गया। कई तो उसने गर्भपात किये, परन्तु पिताके स्नेहमें वह अन्यत्र नहीं भेजी गई । रुपयाके बलसे उसके सब पाप छिपा दिये जाते थे, परन्तु पाप भी कोई पदार्थ है जो छिपायेसे नहीं छिपता ।
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उसके नामका एक सरोवर था, उसका पानी अपेय हो गया । उसीके नामका एक बाग भी था, उसमें जो फल लगते थे उनमें पकने पर कीड़े पड़ने लगे। इससे उसके पापकी चर्चा प्रान्त भरमें फैल गई । पापके उदयमें जो न हो, सो अल्प है।
कुछ कालके बाद द्रौपदीके चित्तमें अपने कुकृत्योंपर बड़ी घृणा हुई, उसने मन्दिरमें जाकर बहुत ही पश्चात्ताप किया और घर आकर अपने पितासे कहा- 'पिताजी ! मैंने यद्यपि बहुत ही भयंकर पाप किये हैं, परन्तु आज मैंने अन्तरंगसे इतनी निन्दा गर्हा की है कि अब मैं निष्पाप हूँ। अब मैं श्री जगन्नाथजीकी यात्राको जाती हूँ। वहाँ से श्रीवैद्यनाथ जाऊँगी। वहीं पर
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