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मेरी जीवनगाथा
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उन्होंने कहीं किसीसे यह नहीं कहा कि हमें बड़ा कष्ट है और न दैनिक चर्यामें कभी शिथिलता की। एक दिन मन्दिरजी आ रही थीं कि मार्गमें पत्थरकी ठोकर लगनेसे गिर पड़ीं। सेठ मथुरादासजी टड़या, जी कि प्रतिदिन क्षेत्रपाल पर श्री अभिनन्दन स्वामी की पूजा करनेके लिए आते थे, बाईजीको गिरा देख पश्चाताप करते हुए बोले-'क्यों बाईजी चोट लग गई ?' बाईजी हँसती हुई बोलीं-'भैया ? थोड़ी दिनकी अंधी हूँ। यदि बहुत दिनकी होती तब कुछ अन्दाज होता। कोई चिन्ताकी बात नहीं, जो अर्जन किया है वह भोगना ही पड़ेगा, इसमें खेद करना व्यर्थ है, आप तो विवेकी हैं-आगमके रसिक हैं। देखो श्री कार्तिकेय मुनिने श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है
'जं जस्स जम्हि देसे जेण विहाणेण जम्हि कालम्हि । णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अह व मरणं वा ।। तं तस्स तम्हि देसे तेण विहाणेण तम्हि कालम्हि ।
को सक्कइ चालेदुं इंदो वा अह जिणिंदो बा।।' जिस जीवके जिस देश और कालमें जिस विधानकर जन्म तथा मरण उपलक्षणसे सुख, दुःख, रोग शोक, हर्ष विषाद आदि श्री जिनेन्द्र भगवान ने देखा है वह सब उस क्षेत्र तथा उस कालमें उसी विधानसे होवेगा-उसे मेटनेको अर्थात् अन्यथा करनेको कोई समर्थ नहीं, चाहे इन्द्र हो अथवा तीर्थंकर हो, कोई भी शक्ति संसारमें जन्म, मरण, सुख, दुःख आदि देनेमें समर्थ नहीं। इसीसे श्री कुन्दकुन्द स्वामीने समयसारके बन्धाधिकारमें लिखा है
'जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि परेहिं सत्तेहिं।
सो मूढो अण्णाणी णाणी एसो दु विवरीदो।। जो यह मानता है कि मैं परकी हिंसा करता हूँ अथवा पर जीवोंके द्वारा मैं मारा जाता हूँ वह मूढ़ है, अज्ञानी है......ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेवका आगम है और ज्ञानी इसके विपरीत है। इसी प्रकार जो ऐसा मानता है कि मैं पर जीवोंको जिलाता हूँ तथा पर जीवोंके द्वारा मैं जिलाया जाता हूँ वह भी मूढ़ है, अज्ञानी है। परन्तु ज्ञानी जीवकी श्रद्धा इससे विपरीत है। भावार्थ यह है कि न कोई किसीका मारनेवाला है और न कोई किसीका जिलानेवाला है। अपने आयकर्मके उदयसे ही प्राणियोंका जीवन रहता है और उसके क्षयसे ही मरण होता है। निमित्त कारणकी अपेक्षा यह सब व्यवहार है, तत्त्व दृष्टिसे देखा जावे तो न कोई मारता है न उत्पन्न करता है। यदि द्रव्य दृष्टिसे विचार करो तब सब द्रव्य स्थिर हैं पर्यायदृष्टिसे उदय भी होता है और विनाश भी। जैसा कि
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